गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 143

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

सातवाँ अध्याय

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भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥4॥
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् ।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ॥5॥

पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश (ये पंचमहाभूत) और मन, बुद्धि तथा अहंकार- इस प्रकार यह आठ प्रकार के भेदों वाली मेरी यह अपरा प्रकृति है; और हे महाबाहो! इस अपरा प्रकृति से भिन्न जीवरूप बनी हुई मेरी परा प्रकृति को जान, जिसके द्वारा यह जगत धारण किया जाता है।

व्याख्या- यह चेतन-तत्त्व अपरा प्रकृति के अहंकार के साथ तादात्म्य कर लेता है, तब वह ‘परा प्रकृति’ कहलाता है। अपरा (जगत) और परा (जीव)-दोनों ही भगवान की प्रकृतियाँ अर्थात शक्तियाँ हैं, स्वभाव हैं। शक्तिमान् के बिना शक्ति की स्वतन्त्र सत्ता नहीं होती। जैसे नख और केश निष्प्राण होते हुए भी प्राणयुक्त शरीर से भिन्न नहीं होते, ऐसे ही अपरा प्रकृति जड़ होते हुए भी चेतन परमात्मा से भिन्न नहीं होती। अतः अपरा और परा-दोनों प्रकृतियाँ भगवान् का स्वरूप होने से भगवान के सिवाय कुछ भी शेष नहीं रहा!

इस जगत को जीव ने ही धारण कर रखा है। तात्पर्य है कि जगत न तो परमात्मा की दृष्टि में है, न महात्मा की दृष्टि में है, प्रत्युत जीव की दृष्टि में है। जीव ने ही जगत को सत्ता और महत्ता देकर उसमें अपनापन कर लिया और जन्म-मरणरूप बन्धन में पड़ गया।

पृथ्वी से लेकर अहंकारतक सब जड़ अपरा प्रकृति है। अतः जैसे पृथ्वी, जल, अग्नि आदि जानने में आने वाले हैं, ऐसे ही अहंकार भी जानने में आने वाला है। उस अहंकार से तादात्म्य करके जीव अपने को ‘मैं हूँ’-ऐसा मान लेता है। इसमें ‘मैं’ तो अपरा प्रकृति है और ‘हूँ’ परा प्रकृति है। अहंकार से सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर ‘मैं’ का तो अभाव हो जाता है और ‘हूँ’ चिन्मय सत्तामात्र ‘है’ में परिणत हो जाता है-यही मोक्ष है।

अहम् को धारण करने से जीव ने सम्पूर्ण अपरा प्रकृति को धारण कर लिया। ‘मैं हूँ’- इस अभिमान को रखना ही अपरा प्रकृति को धारण करना है। यदि अहम अभिमान शून्य हो जाय अर्थात अभिमान न रह कर अपरा प्रकृति का शुद्ध अहम रह जाय तो वह बन्धनकारक नहीं होता; जैसे पृथ्वी, जल, अग्नि आदि कभी बन्धन कारक नहीं होते।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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