गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
छठा अध्याय
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति । व्याख्या- ध्यानयोग के जिस साधक में भक्ति के संस्कार रहते हैं, जो भक्ति को ही मुख्य मानता है, वह जड़ता से सम्बन्ध-विच्छेद होने पर सब में भगवान् को और भगवान् में सब को देखता है। अतः उसके लिये भगवान् अदृश्य नहीं होते और वह भगवान् के लिये अदृश्य नहीं होता। जब एक भगवान् के सिवाय दूसरी सत्ता है ही नहीं, भगवान् ही अनेक रूपों में प्रकट हो रहे हैं, फिर भगवान् कैसे छिपें, कहाँ छिपें, किसके पीछे छिपें? सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थित: । व्याख्या- भगवान् का भक्त अपने शरीर के सहित सम्पूर्ण संसार को भगवान् का ही स्वरूप समझता है। इसलिये वह नित्य-निरन्तर भगवान् में ही रहता है और भगवान् में ही सब बर्ताव करता है। उसके भाव में ये पाँच बातें रहती हैं- 1. मैं भगवान का ही हूँ, 2. मैं जहाँ भी रहता हूँ, भगवान् के दरबार में ही रहता हूँ, 3. मैं जो भी शुभ कार्य करता हूँ, भगवान का ही कार्य करता हूँ, 4. मैं शुद्ध-सात्त्विक जो भी पाता हूँ, भगवान् का ही प्रसाद पाता हूँ, और 5. भगवान के दिये प्रसाद से भगवान् के ही जनों की सेवा करता हूँ। जैसे गंगाजल से गंगा का पूजन किया जाय, ऐसे ही उस भक्त का बर्ताव भगवान् में ही होता है। जैसे शरीर से सम्बन्ध मानने वाला मनुष्य सब क्रियाएँ करते हुए भी निरन्तर शरीर में ही रहता है, ऐसे ही भक्त सब क्रियाएँ करते हुए भी निरन्तर भगवान् में ही रहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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