गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य 23.गीता का सारमर्म
इस उक्ति को अत्यंत शाब्दिक अर्थ में लेने से इस ग्रंथ के विषय में अंध-विश्वास को प्रोत्साहन मिलेगा। आत्मा का सत्य असीम है और उसे इस प्रकार से किसी परिधि के अंदर बंद नहीं किया जा सकता। तथापि यह कहा जा सकता है कि अधिकतर प्रधान सूत्र इसमें विद्यमान हैं और आध्यात्मिक अनुभूति एवं उपलब्धि के समस्त परवर्ती विकास के होते हुए भी हम एक विशाल अनुप्रेरणा एवं मार्गदर्शन के लिये इसकी ओर मुड़ सकते हैं। भारत के बाहर भी इसे सर्वत्र विश्व का एक अन्यतम महान् धर्मग्रंथ स्वीकार किया जाता है यद्यपि यूरोप में इसके अध्यात्म-साधन-संबंधी रहस्य की अपेक्षा इसकी विचारधारा को अधिक अच्छे रूप में हृदयंगम किया गया है। तो भला वह कौन-सी चीज है जो गीता के विचार और सत्य को यह प्राणशक्ति प्रदान करती है? गीता के दर्शन तथा योग का केन्द्रीय ध्येय है आंतर आध्ययात्मिक सत्य की पूर्णतम एवं समग्रतम उपलब्धि के साथ मनुष्य के जीवन एवं कर्म की बाह्य यथार्थताओं का सामंजस्य साधित करना यहांतक कि एक प्रकार का ऐक्य स्थापित करना। गीता के अंदर अथ से इति तक यही विचार ओत-प्रोत हैं। वैसे इन दोनों में समझौता करने की प्रथा तो काफी प्रचलित है, पर समझौता अंतिम एवं संतोषजनक समाधन कदापि नहीं हो सकता। आध्यात्मिक को नैतिक रूप देने की प्रथा का भी अत्यधिक प्रचलन देखा जाता है और सदाचार के एक विधान की दृष्टि से उसका महत्त्व भी है पर वह एक मानसिक समाधान है, उससे जीवन के समस्त सत्य के साथ आत्मा के समस्त सत्य की पूर्ण क्रियात्मक सुसंगति साधित नहीं होती, और साथ ही वह जितनी समस्याएं हल करता है उतनी ही और पैदा देता है। निःसंदेह, उन्हीं में से एक समस्या गीता का प्रारंभसूत्र है गीता का सूत्रपात एक संघर्षजनित नैतिक समस्या से हुआ। हम देखते हैं कि उस संघर्ष में एक ओर तो है कर्मी पुरुष का धर्म, राजपुत्र वीर एवं जननेता का धर्म महासंकट एवं मुख्य नायक का धर्म भौतिक क्षेत्र में, वास्तविक जीवन के क्षेत्र में धर्म तथा न्याय की शक्तियों और अधर्म तथा अन्याय की शक्तियों के पारस्परिक संग्राम के प्रधान नायक का धर्म इस धर्म की दृष्टि से जाति की भवितव्यता की उस नेता से यह मांग है कि वह अवश्यमेव प्रतिरोध करें, शत्रु पर आक्रमण करे और सत्य धर्म एवं न्याय का नवीन युग और राज्य स्थापित करे, भले ही उसे इसके लिये कैसा भी भीषण स्थूल संग्राम एवं घोर संहार क्यों न करना पड़े; परंतु इसके दूसरी ओर है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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