गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द6.मनुष्य और जीवन-संग्राम
उस काल में मनुष्य को मूलतः एक सामाजिक प्राणी नहीं समझा जाता था, न उसकी सामाजिक स्थिति की पूर्ण संपन्नता ही सर्वोच्च आदर्श मानी जाती थी, बल्कि यह मान्यता थी कि मनुष्य एक आध्यात्मिक जीव है जो क्रमशः गठित और विकसित हो रहा है और उसका सामाजिक जीवन, उसका विशेष धर्म, उसके स्वभाव की क्रिया और उसके कर्म का उपयोग, ये सब उसके आध्यात्मिक गठन के साधन और अवस्था मात्र हैं। चितंन और ज्ञान, युद्ध और राज्य-प्रबंध, शिल्प, कृषि और वाणिज्य, मजदूरी और सेवा, ये सब समाज के विधिपूर्वक बंटे हुए कर्म थे, जो सहज जीव से जिस कर्म के योग्य हेाते उन्हीं को वह काम सौंपा जाता था और वही कर्म उनका वह उचित साधन होता था जिसके द्वारा वे व्यक्तिशः अपनी आध्यात्मिक उन्नति और आत्मसिद्धि की ओर आगे बढ़ सकते थे। आधुनिक की जो यह भावना है कि अखिल मानव-कर्म के सभी मुख्य-मुख्य विभागों में सब मुनष्यों को ही समान रूप से योगदान करना चाहिये, इस भावना के अपने कुछ लाभ है, और जहाँ भारतीय वर्णव्यवस्था का अंत में यह परिणाम हुआ कि व्यक्ति के अनगिनत विभाजन हो गये, उसमें अतिविशेषीकरण की भरमार हो गयी तथा उसका जीवन संकुचित और कृत्रिम बंधनों से बंध गया, वहाँ आधुनिक व्यवस्था समाज के जीवन को अधिक संघटित, एकत्रित और पूर्ण बनाने में तथा संपूर्ण मानव -सत्ता का सर्वागीण विकास करने में सहायता देती है। परंतु आधिुनिक व्यवस्था के भी अपने दोष हैं और इसके कतिपय व्यावहारिक प्रयोगों में इस व्यवस्था का बहुत अधिक कठोरता पूर्वक उपयोग किये जाने के कारण इसका परिणाम बेढ़ेगा और अनर्थकारी हुआ। आधुनिक युद्ध का स्वरूप देखने से ही यह बात स्पष्ट हो जायेगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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