गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य 16.आध्यात्मिक कर्म की परिपूर्णता
यही वह कठिनाई है जिसका समाधान गीता को अभी करना है ताकि वह ईश्वरान्वेषक के लिये कर्मो का औचित्य सिद्ध कर सके। अन्यथा उसे अर्जुन को कहना होगा कि ‘‘कुछ समय तक इस ढंग से कर्म कर, पर बाद में कर्मत्याग के उच्चतर पथ का अनुसरण कर।” परंतु, इसके विपरीत, उसने कहा है कि कर्मों का त्याग नहीं वरन् कामना का त्याग ही श्रेयस्कर मार्ग है; उसने मुक्त पुरुष के कर्म की भी चर्चा की है, मुक्तस्य कर्म। यहाँ तक कि उसने सभी कर्मों के अनुष्ठान का आग्रह किया है, सर्वाणि कर्माणि, कृत्स्नकृत्; उसने कहा है कि सिद्ध योगी चाहे जिस भी तरह से रहे, चाहे जिस भी तरीके से कर्म करे, वह सदा ईश्वर में ही रहता और कर्म करता है। यह तभी हो सकता है यदि प्रकृति भी अपनी गतिशक्ति तथा कार्य-व्यापार में दिव्य बन जाये, एक ऐसी शक्ति बन जाये जो अविचल, निर्लिप्त, निर्विकार एवं विशुद्ध हो तथा अपरा प्रकृति की प्रतिक्रियाओं से विक्षुब्ध न होने पाये। यह अत्यंत कठिन रूपांतर किसी प्रकार तथा किन क्रमों के द्वारा साधित हो सकता है? जीव के सिद्धि-लाभ का यह अंतिम रहस्य क्या है? हमारी मानवीय एवं पार्थिव प्रकृति के इस रूपांतर का मूलसूत्र वा प्रक्रिया क्या है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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