गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 415

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गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य
14.त्रैगुणातीत्य


हमें स्वयं कर्म को भी कर्मों के ईश्वर के प्रति उत्सर्ग करके उनके संकल्प का निष्काम और समचित उपकरण मात्र बनाना होगा। यह देखना कि प्रकृति के गुण ही हमारे कार्यों के एकमात्र कर्त्ता और कारण हैं तथा जो भगवान गुणातीत परम सत्ता हैं उन्हें जानना और उनकी ओर मुड़ना ही निम्नतर प्रकृति के ऊपर उठने का साधन है। केवल इस उपाय से ही हम भागवत गति और स्थिति, मद्भाव, उपलब्ध कर सकते हैं। इस मद्भाव के द्वारा मुक्त जीव जन्म और मृत्यु से तथा इनके सहचारी क्षय, वार्द्धक्य और दुःख ताप की अधीनता से छूटकर अंतत: अमृतत्त्व तथा सभी नित्य वस्तुओं का आस्वादन करेगा।

परंतु अर्जुन पूछता है कि ऐसे मनुष्य के लक्षण क्या होते हैं, उसका आचार-व्यवहार कैसा होता है तथा कैसे वह कर्म में रत भी त्रिगुणातीत कहलाता है? श्रीकृष्ण कहते हैं कि उसका लक्षण होता है वह समत्व जिसकी मैनें बारंबार चर्चा की है; उसका लक्षण यह है कि अपने अंदर में वह सुख और दुःख को एक समान समझता है, सोने, मिट्टी और पत्थर को समान मूल्य की चीजें समझता है और उसके लिये प्रिय-अप्रिय, निंदा-स्तुति, मान-अपमान, मित्रपक्ष और शत्रुपक्ष-सब एक बराबर होते हैं। वह एक ज्ञानमय, अविचल, निर्विकार, आभ्यंतरिक शांति और स्थिरता में दृढ़ रूप से प्रतिष्ठित रहता है। वह किसी भी कर्म का आरंभ नहीं करता, बल्कि सब कर्मो को प्रकृति के गुणों के द्वारा किये जाने के लिये छोड़ देता है। सत्त्व, रज या तम उसके बाह्य मन तथा शारीरिक चेष्टाओं में उभर सकता या दब सकता है और उसके परिणामस्वरूप प्रकाश एवं कर्म-प्रवृत्ति पैदा हो सकती है अथवा अकर्मण्यता उत्पन्न हो सकती है।

मन तथा प्राण तमसाच्छन्न हो सकते हैं; किंतु जब एक उभरता या दूसरा दबता है तो वह हर्षित नहीं होता; दूसरी ओर वह इन सब चीजों की प्रवृत्ति या निवृत्ति से कतराता या भागता भी नहीं। वह अपने को गुणों की प्रकृति से भिन्न किसी अन्य तत्त्व की चिन्मयी ज्योति में प्रतिष्ठित कर चुका होता है और वह महत्तर चेतना उसके अंदर इन शक्तियों से ऊपर तथा इनकी गतियों से अचलायमान अवस्था में स्थिर रूप से अवस्थित रहती है जैसे कि जो मनुष्य अंतरिक्ष में अधिक ऊंचाई पर चला जाता है उसके लिये बादलों के ऊपर सूर्य सदा ही विद्यमान रहता है। उस ऊचांई से वह देखता है कि गुण ही सब कर्म कर रहे हैं और उनकी जो विक्षुब्धता तथा स्थिरता हैं वे उसका अपना आत्म-स्वरूप नहीं बल्कि प्रकृति की एक गति मात्र हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता प्रबंध -अरविन्द
क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
भाग-1
1. गीता से हमारी आवश्यकता और मांग 1
2. भगवद्गुरु 9
3. मानव-शिष्य 17
4. उपदेश का सारमर्म 26
5. कुरुक्षेत्र 37
6. मनुष्य और जीवन-संग्राम 44
7. आर्य क्षत्रिय-धर्म 56
8. सांख्य और योग 68
9. सांख्य, योग और वेदांत 80-81
10. बुद्धियोग 92
11. कर्म और यज्ञ 102
12. यज्ञ-रहस्य 110
13. यज्ञ के अधीश्वर 119
14. दिव्य कर्म का सिद्धांत 128
15. अवतार की संभावना और हेतु 139
16. भगवान की अवतरण-प्रणाली 152
17. दिव्य जन्म और दिव्य कर्म 161
18. दिव्य कर्मी 169
19. समत्व 180
20. समत्व और ज्ञान 192
21. प्रकृति का नियतिवाद 203
22. त्रैगुणातीत्य 215
23. निर्वाण और संसार में कर्म 225
24. कर्मयोग का सारतत्त्व 238
भाग-2
खंड-1
1. दो प्रकृतियां 250
2. भक्ति-ज्ञान-समन्वय 262
3. परम ईश्वर 272
4. राजगुह्य 284
5. भवदीय सत्य और मार्ग 294
6. कर्म, भक्ति और ज्ञान 305
7. गीता का महावाक्य 320
8. भगवान की संभूति–शक्ति 337
9. विभूति का सिद्धांत 348
10. विश्वरूप-दर्शन 360
11. विश्वपुरुष–दर्शन 372
12. मार्ग और भक्त 380
खंड-2
13. क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ 391
14. त्रैगुणातीत 403
15. तीन पुरुष 417
16. आध्यात्मिक कर्म की परिपूर्णता 433
17. देव और असुर 449
18. त्रिगुण, श्रद्धा और कर्म 463
19. त्रिगुण,मन और कर्म 482
20. स्वभाव और स्वधर्म 497
21. परम रहस्य की ओर 518
22. परम रहस्य 533
23. गीता का सारमर्म 558
24. गीता का संदेश 570
25. अंतिम पृष्ठ 597

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