गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य 14.त्रैगुणातीत्य
परंतु अर्जुन पूछता है कि ऐसे मनुष्य के लक्षण क्या होते हैं, उसका आचार-व्यवहार कैसा होता है तथा कैसे वह कर्म में रत भी त्रिगुणातीत कहलाता है? श्रीकृष्ण कहते हैं कि उसका लक्षण होता है वह समत्व जिसकी मैनें बारंबार चर्चा की है; उसका लक्षण यह है कि अपने अंदर में वह सुख और दुःख को एक समान समझता है, सोने, मिट्टी और पत्थर को समान मूल्य की चीजें समझता है और उसके लिये प्रिय-अप्रिय, निंदा-स्तुति, मान-अपमान, मित्रपक्ष और शत्रुपक्ष-सब एक बराबर होते हैं। वह एक ज्ञानमय, अविचल, निर्विकार, आभ्यंतरिक शांति और स्थिरता में दृढ़ रूप से प्रतिष्ठित रहता है। वह किसी भी कर्म का आरंभ नहीं करता, बल्कि सब कर्मो को प्रकृति के गुणों के द्वारा किये जाने के लिये छोड़ देता है। सत्त्व, रज या तम उसके बाह्य मन तथा शारीरिक चेष्टाओं में उभर सकता या दब सकता है और उसके परिणामस्वरूप प्रकाश एवं कर्म-प्रवृत्ति पैदा हो सकती है अथवा अकर्मण्यता उत्पन्न हो सकती है। मन तथा प्राण तमसाच्छन्न हो सकते हैं; किंतु जब एक उभरता या दूसरा दबता है तो वह हर्षित नहीं होता; दूसरी ओर वह इन सब चीजों की प्रवृत्ति या निवृत्ति से कतराता या भागता भी नहीं। वह अपने को गुणों की प्रकृति से भिन्न किसी अन्य तत्त्व की चिन्मयी ज्योति में प्रतिष्ठित कर चुका होता है और वह महत्तर चेतना उसके अंदर इन शक्तियों से ऊपर तथा इनकी गतियों से अचलायमान अवस्था में स्थिर रूप से अवस्थित रहती है जैसे कि जो मनुष्य अंतरिक्ष में अधिक ऊंचाई पर चला जाता है उसके लिये बादलों के ऊपर सूर्य सदा ही विद्यमान रहता है। उस ऊचांई से वह देखता है कि गुण ही सब कर्म कर रहे हैं और उनकी जो विक्षुब्धता तथा स्थिरता हैं वे उसका अपना आत्म-स्वरूप नहीं बल्कि प्रकृति की एक गति मात्र हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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