गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य 14.त्रैगुणातीत्य
प्रकृति के ये तीन गुण सभी मनुष्यों में स्पष्ट रूप से विद्यमान और क्रियाशील हैं और किसी को भी इनसे सर्वथा रहित या तीनों में से किसी एक से विमुक्त नहीं कहा जा सकता; कोई भी व्यक्ति अन्य गुणों के बिना केवल एक ही गुण के सांचे में ढला हुआ नहीं है। सभी लोगों के अंदर कामना और कर्म का राजसिक आवेग किसी-न-किसी मात्रा में विद्यमान है और साथ ही प्रकाश एवं सुख का सात्त्विक वरदान, कुछ संतुलन, अपने-आप, अपनी परिस्थितियों तथा अपने विषयों के प्रति मन का कुछ सामंजस्य भी सबको प्राप्त है, और तामसिक अशक्तता, अज्ञान या निश्चेतना का हिस्सा भी सबको मिला हुआ है। परंतु ये गुण अपनी शक्ति की परिमाणात्मक क्रिया में या अपने तत्त्वों के संयोग में किसी भी मनुष्य के अंदर स्थिर रूप में विद्यमान नहीं हैं; क्योंकि ये परिवर्तनशील है तथा निरंतर ही पारस्परिक संघात, स्थान-परिवर्तन तथा क्रिया-प्रतिक्रिया की अवस्था में रहते हैं। कभी तो एक नेतृत्व करता है और कभी दूसरा प्रबल हो जाता तथा प्रधानता प्राप्त कर लेता है, और प्रत्येक हमें अपनी विशिष्ट क्रिया तथा उसके परिणामों के अधीन कर देता है। जब इनमें से कोई एक या दूसरा किसी मनुष्य के अंदर व्यापक तथा साधारण रूप से प्रमुखता प्राप्त कर ले केवल तभी यह कहा जा सकता है कि उस मनुष्य की प्रकृति सात्त्विक या राजसिक या तामसिक है; पर यह तो केवल एक सामान्य लक्षण हो सकता है, ऐकांतिक या चरम लक्षण नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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