गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-2: परम रहस्य
13.क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ
एकमेव आत्मा है जो इस समस्त गति को अमित रूप में अपने-आपसे पूरित तथा परिवेष्टित करती है-क्योंकि निःसंदेह वह गति भी वह स्वयं ही है-और जो सब सांत वस्तुओं पर अपने अनंतता-रूपी परिधान के प्रभाव को प्रसारित करती है, एक देहरहित और सहदेहधारी आत्मा जिसके शक्तिशाली हस्त और वेगवान् चरण हमारे चारों ओर विमान हैं, जिसके सिर, नेत्र और मुख वे असंख्य चेहरे हैं जो हमें, जिधर भी हम मुड़ते हैं, दिखायी देते हैं, जिसका स्त्रोत सर्वत्र नित्यता की नीरवता तथा जगतों के संगीता का श्रवण कर रहा है-वही आत्मा वह विराट् पुरुष है जिसके भुजपाश में हम निवास करते हैं। पुरुष और प्रकृति के सभी संबंध ब्रह्य की नित्यता के ही अंदर होने वाली घटनाएं हैं; उन सबंधों की प्रकाशक और उपादान-भूत इन्द्रियां और गुण इन्हीं परम पुरुष के साधन हैं, इनकी अपनी ही शक्ति सब वस्तुओं में जिन कार्य-व्यापारों को निरंतर गतिमान करती रहती हैं वे सब इन साधनों के द्वारा ही हमारे सम्मुख प्रकट होते हैं। पर स्वयं वे इन्द्रियों की सीमा से परे हैं, वे सब वस्तुओं को देखते हैं पर स्थूल आंख से नहीं, सब बातों को सुनते हैं पर स्थूल स्त्रोत से नहीं, सब वस्तुओं को जानते हैं किंतु परिसीमक मन से नहीं-मन तो केवल वस्तु का निरूपण करता है पर वास्तव में वह उसका ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकता। किन्हीं भी गुणों द्वारा निर्धारित न होते हुए, वे अपने सत्तत्त्व में सब गुणों को धारित तथा निर्धारित करते हैं और अपनी ही प्रकृति के इस गुणात्मक व्यापार का उपभोग करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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