गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
11.विश्वपुरुष–दर्शन
और फिर, इस सत्य पर किये गये इस आग्रह से, स्वभावतः ही, गीता की विचारधारा मुनष्य के अंदर विद्यमान इस एक महान् देव की उपस्थिति के विषय की ओर मुड़ जाती है। विश्वरूप-दर्शन करने वाले की आत्मा तीन क्रमिक सुझावों से प्रभावित होती है। सर्वप्रथम, उसके चित्त में यह विश्वास जम जाता है कि ‘मनु’ के इस पुत्र की देह में जो भूतल पर एक नश्वर प्राणी की तरह उसके समीप विचरण करता था, उसके पास बैठता, एक ही पलंग पर उसके साथ लेटता, उसके साथ प्रतिभोज करता था, हंसी-ठट्ठे तथा असावधानतापूर्ण संभाषण का जो पात्र था और युद्ध, मंत्रणा तथा साधारण कार्यों का अभिनेता था, मरणधर्मा मनुष्य की इस तनु में बराबर ही कोई ऐसी चीज थी जो महान्, निगूढ़ तथा अत्यंत मार्मिक थी, उसके अंदर थे परमेश्वर, अवतार, विराट, शक्ति, एकमेव सद्वस्तु, परमोच्च परात्पर पुरुष। इस गुह्य देवत्व के प्रति, जिसमें मनुष्य तथा उसकी जाति के सुदीर्घ विकास का समस्त मर्म लिपटा पड़ा है और जिससे सूपर्ण जगत्-सत्ता अपना अकथनीय महिमा से युक्त आभ्यंतरिक अर्थ प्राप्त करती है, वह अंध ही रहा था। केवल अब ही वह वैयक्तिक ढांचे में विद्यमान विश्वात्मा को, मानवता के रूप में मूर्तिमंत भगवान् को तथा प्रकृति के इस प्रतीक में परीत्पर अंतर्वासी को देखता है केवल अब ही उसने इन सब प्रतीयमान पदार्थों की इस अतिगुरु, अनंत, अपरिमेय वास्तव सत्ता के इस असीम विश्वरूप के दर्शन किये हैं जो प्रत्येक व्यष्टिगत रूप से इतना परे हैं और फिर भी प्रत्येक व्यष्टिभूत पदार्थ जिनका निवास-धाम है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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