गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द22.त्रैगुणातीत्य
कारण, प्रकृति में व्यक्त और उसके कर्म में बद्ध पुरुष के परे पुरुष की एक और स्थिति है, जो केवल एक स्थितिशील अवस्था है, वहाँ कर्म बिलकुल नहीं है; वह पुरुष की नीरव-निश्चल, सर्वगत, स्वतःस्थित, अचल, अक्षर आत्मसत्ता है, भूतभाव नहीं। क्षरभाव में पुरुष प्रकृति के कर्म में फंसा है, इसलिये यह काल के मुहुर्तो में, भूतभाव की तरंगों में केन्द्रीभूत है, मानो अपने-आपको खो बैठा है, पर यह खो बैठना वास्तविक नही, यह केवल ऐसा दिखयी देता है और चूंकि यहाँ पुरुष भूतभाव के प्रवाह का अनुसरण करता है इसीलिये ऐसा जान पड़ता है। अक्षरभाव में प्रकृति पुरुष में शांति और विश्रांति को प्राप्त होती है, इस कारण पुरुष अपने अक्षर स्वरूप को जान जाता है। क्षर सांख्योक्त पुरुष की वह अवस्था है वह प्रकृति के गुणों के नानाविध कर्मों को प्रतिबिम्बित करता है और अपने-आपको सगुण, व्यष्टि-पुरुष जानता है; अक्षर सांख्योक्त पुरुष की वह अवस्था है जब ये गुण साम्यावस्था को प्राप्त होते हैं और वह अपने-आपको निर्गुण, नैर्व्यक्तिक पुरुष जानता है। इसलिये जहाँ क्षर पुरुष की यह अवस्था है कि वह प्रकृति के कर्म के साथ युक्त होकर कर्ता भासित होता है वहाँ अक्षर पुरुष गुण-कर्मों से सर्वथा अलग, निष्क्रिय, अकर्ता और साक्षी मात्र रहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज