गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द3.मानव-शिष्य
सारी पृथ्वी का, या तीनों लोकों का राज लेकर भी इन्हें भला कौन मारना चाहेगा? इन्हें मारकर फिर यह जीवन ही क्या रहेगा? इसमें क्या सुख और संतोष होगा! यह सब तो एक महापापमय कांड है! अब वह नैतिक बोध संवेदनों और माया-ममता के विद्रोह का समर्थन करने के लिये जाग उठता है, यह पाप है, आपस के लोगों के मार-काट में न कहीं अन्याय है, न धर्म, विशेषतः जबकि मारे जाने वाले स्वभावतः पूज्य और प्रेम-भाजन हैं, जिनके बिना भार न होगा, इन पवित्र भावनाओं की हत्या करना कभी पुण्य नहीं हो सकता, यहीं नहीं, यह पाप है, आपस के लोगों की मार-काट में न नहीं हो सकता, यहीं नहीं, यह पाप है, दारुण पाप है। माना कि अपराध उनका है, आक्रमण का आरंभ उनकी ओर से हुआ, पाप उनसे शुरू हुआ, लोभ और स्वार्थांधता के पातकी वे ही हैं जिनके कारण यह दशा उत्पन्न हुई; फिर भी जैसी परिस्थिति है उसमें अन्याय का जवाब हथियारों से देना खुद ही एक पाप होगा और यह पाप उनके पाप से भी बढ़कर होगा क्योंकि वे तो लोभ से अंधे हो रहे हैं और अपने पाप का उन्हें ज्ञान नहीं, पर हम लोग तो जानते हैं कि यह लड़ाई लड़ना पाप है। लड़ाई भी इसलिये? कुल-धर्म की रक्षा के लिये, जाति-धर्म की रक्षा के लिये, राष्ट्र धर्म की रक्षा के लिये? पर इन्हीं धर्मों का तो इस गृह-युद्ध से नाश होगा; कुल नष्टप्राय होगा, जाति का चरित्र कलुषित होगा और उसकी शुद्धता नष्ट होगी, सनातन जाति धर्म और कुल नष्ट होंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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