गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 189

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गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द

19.समत्व


‘‘बुद्धि के भी परे जो परमात्मा है उनको बुद्धि के द्वारा जानकर आत्मा को आत्म-शक्ति से स्थिर और निश्चल करो और लाभ करने वाली राजसिक प्रवृत्ति दोनों ही अच्छी हो सकती हैं यदि उनका लक्ष्य सत्त्वगुण के द्वारा आत्म-ज्ञान को प्राप्त करना हो, क्योंकि निवृत्ति और संघर्षात्मक प्रवृत्ति दोनों की सार्थकता उसी में है। गीता का कथन है,[1] अर्थात् धीर बद्धिमान् पुरुष उनसे घबराता नहीं। परंतु फिर भी इन्हें जो स्वीकार करता है वह इन्हें जीतने के लिये ही करता है। विशुद्ध दार्शनिक, मनीषी, जन्म-ज्ञानी पुरुष अपने आचार-विचार के लिये सत्त्वगुण को केवल अपना परम औचितय नहीं मानता बल्कि आत्म-वशित्व के साधन में आरंभ से उसीसे काम लेता। वह आरंभ ही सात्त्विक समता से करता है। वह भी जड़-प्राकृतिक और बाह्य जगत् की क्षणभंगुरता को देखता-समझता है और यह जानता है कि यह जगत् हमारी कामनाओं को पूरा नहीं कर सकता, न यह हमें सच्चा सुख ही दे सकता है; परंतु इससे उसमें शोक, भय या नैराश्य नहीं उत्पन्न होता। वह स्थिर शांत बुद्धि से सब कुछ देख लेता और बिना किसी द्वेष या घबराहट के अपना मार्ग निश्चित कर लेता है।

‘‘विषयेंद्रिय-संयोग से उत्पन्न होने वाले ये भोग ही दुःख के कारण हैं, इनका आदि है, अंत है; इसलिये ज्ञानी, जाग्रत् बुद्धिवाला पुरुष (बुध) इनमें रमण नहीं करता।[2]उसकी आत्मा इन बाह्य स्पर्शों में आसक्त नहीं होती, वह अपना सुख अपने ही अपने ही अंदर पाता है।”[3] वह देख पाता है कि हम ही अपने शत्रु हैं और हम ही अपने मित्र, इसलिये वह सदा सावधान रहता है और अपने-आपको कामक्रोध के हवाले नहीं करता बल्कि अपनी अंतःशक्ति का प्रयोग कर अपने-आपको इनके कैदखाने से एकदम छुड़ा लेता है, क्योंकि जिसने अपनी निम्न प्रकृति को जीत लिया है वह अपने उच्चतर स्वभाव को अपने सर्वोत्तम सत्ता और साथी के रूप में पाता है। वह ज्ञान से तृप्त हो जाता है, अपनी इन्द्रियों का स्वामी हो जता है, सात्त्विक समत्व के द्वारा योगी हो जाता है-क्योंकि समत्व ही तो योग है, उसकी दृष्टि में मिट्टी, पत्थर और सोना सब बराबर है; सरदी-गरमी में, सुख-दुःख में, मान-अपमान में वह एक-सा शांत और सम रहता है। शत्रु, मित्र, तटस्थ और उदासीन सबके लिये वह आत्मभाव में सम होता है, क्योंकि वह देखता है कि ये सब संबंध अनित्य हैं, और जीवन की सदा बदलने वाली परिस्थिति से उत्पन्न होते हैं। विद्या, शुचिता और सदाचार की बुनियाद पर किये जाने वाले श्रेष्ठ-कनिष्ठ के भेद भी उसे नहीं भरमा सकते। वह साधु-असाधु, सदाचारपूत, विद्वान, सुसंस्कृत ब्राह्मण और पतित चांडाल, अर्थात् मनुष्यमात्र के लिये, सम, आत्मभावयुत होता है। गीता में सात्त्विक समता का जो वर्णन है वह यही है और ज्ञानी मुनि की जिस शांत बौद्धिक समता से यह जगत् परिचित है, उसका सार इसमें अच्छी तरह आ गया है। तब इस समता में और गीता जिस उदारतर समता का उपदेश देती है उसमें क्या भेद है? वह भेद यह है कि दार्शनिकों की समता का आधार है बौद्धिक विवेक और गीता की समता का आधार है आध्यात्मिक वैदांतिक अद्वैत ज्ञान।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 13.43
  2. 5.22
  3. 5.21

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क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
भाग-1
1. गीता से हमारी आवश्यकता और मांग 1
2. भगवद्गुरु 9
3. मानव-शिष्य 17
4. उपदेश का सारमर्म 26
5. कुरुक्षेत्र 37
6. मनुष्य और जीवन-संग्राम 44
7. आर्य क्षत्रिय-धर्म 56
8. सांख्य और योग 68
9. सांख्य, योग और वेदांत 80-81
10. बुद्धियोग 92
11. कर्म और यज्ञ 102
12. यज्ञ-रहस्य 110
13. यज्ञ के अधीश्वर 119
14. दिव्य कर्म का सिद्धांत 128
15. अवतार की संभावना और हेतु 139
16. भगवान की अवतरण-प्रणाली 152
17. दिव्य जन्म और दिव्य कर्म 161
18. दिव्य कर्मी 169
19. समत्व 180
20. समत्व और ज्ञान 192
21. प्रकृति का नियतिवाद 203
22. त्रैगुणातीत्य 215
23. निर्वाण और संसार में कर्म 225
24. कर्मयोग का सारतत्त्व 238
भाग-2
खंड-1
1. दो प्रकृतियां 250
2. भक्ति-ज्ञान-समन्वय 262
3. परम ईश्वर 272
4. राजगुह्य 284
5. भवदीय सत्य और मार्ग 294
6. कर्म, भक्ति और ज्ञान 305
7. गीता का महावाक्य 320
8. भगवान की संभूति–शक्ति 337
9. विभूति का सिद्धांत 348
10. विश्वरूप-दर्शन 360
11. विश्वपुरुष–दर्शन 372
12. मार्ग और भक्त 380
खंड-2
13. क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ 391
14. त्रैगुणातीत 403
15. तीन पुरुष 417
16. आध्यात्मिक कर्म की परिपूर्णता 433
17. देव और असुर 449
18. त्रिगुण, श्रद्धा और कर्म 463
19. त्रिगुण,मन और कर्म 482
20. स्वभाव और स्वधर्म 497
21. परम रहस्य की ओर 518
22. परम रहस्य 533
23. गीता का सारमर्म 558
24. गीता का संदेश 570
25. अंतिम पृष्ठ 597

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