गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द19.समत्व
‘‘विषयेंद्रिय-संयोग से उत्पन्न होने वाले ये भोग ही दुःख के कारण हैं, इनका आदि है, अंत है; इसलिये ज्ञानी, जाग्रत् बुद्धिवाला पुरुष (बुध) इनमें रमण नहीं करता।[2]उसकी आत्मा इन बाह्य स्पर्शों में आसक्त नहीं होती, वह अपना सुख अपने ही अपने ही अंदर पाता है।”[3] वह देख पाता है कि हम ही अपने शत्रु हैं और हम ही अपने मित्र, इसलिये वह सदा सावधान रहता है और अपने-आपको कामक्रोध के हवाले नहीं करता बल्कि अपनी अंतःशक्ति का प्रयोग कर अपने-आपको इनके कैदखाने से एकदम छुड़ा लेता है, क्योंकि जिसने अपनी निम्न प्रकृति को जीत लिया है वह अपने उच्चतर स्वभाव को अपने सर्वोत्तम सत्ता और साथी के रूप में पाता है। वह ज्ञान से तृप्त हो जाता है, अपनी इन्द्रियों का स्वामी हो जता है, सात्त्विक समत्व के द्वारा योगी हो जाता है-क्योंकि समत्व ही तो योग है, उसकी दृष्टि में मिट्टी, पत्थर और सोना सब बराबर है; सरदी-गरमी में, सुख-दुःख में, मान-अपमान में वह एक-सा शांत और सम रहता है। शत्रु, मित्र, तटस्थ और उदासीन सबके लिये वह आत्मभाव में सम होता है, क्योंकि वह देखता है कि ये सब संबंध अनित्य हैं, और जीवन की सदा बदलने वाली परिस्थिति से उत्पन्न होते हैं। विद्या, शुचिता और सदाचार की बुनियाद पर किये जाने वाले श्रेष्ठ-कनिष्ठ के भेद भी उसे नहीं भरमा सकते। वह साधु-असाधु, सदाचारपूत, विद्वान, सुसंस्कृत ब्राह्मण और पतित चांडाल, अर्थात् मनुष्यमात्र के लिये, सम, आत्मभावयुत होता है। गीता में सात्त्विक समता का जो वर्णन है वह यही है और ज्ञानी मुनि की जिस शांत बौद्धिक समता से यह जगत् परिचित है, उसका सार इसमें अच्छी तरह आ गया है। तब इस समता में और गीता जिस उदारतर समता का उपदेश देती है उसमें क्या भेद है? वह भेद यह है कि दार्शनिकों की समता का आधार है बौद्धिक विवेक और गीता की समता का आधार है आध्यात्मिक वैदांतिक अद्वैत ज्ञान। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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