गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द10.बुद्धियोग
“योगस्थ होकर कर्म कर, संग का त्याग करके, सिद्धि-असिद्धि में सम होकर; समत्व ही योग से अभिप्रेत है”[3]। यह प्रश्न उठता है, कि शुभ और अशुभ के आपेक्षिक विचार के कारण, पाप से भय और पुण्य के कठिन प्रयास के कारण क्या कर्म केवल दु:खदायी ही नहीं होता? परंतु वह मुक्त् पुरुष जिसने अपनी बुद्धि और संकल्प को भगवान् के साथ एक कर लिया है, वह इस द्वन्द्वमय संसार में भी शुभ कर्म और अशुभ कर्म दोनों का परित्याग किये रहता है; क्योंकि वह शुभाशुभ के परे जो धर्म है, जिसकी प्रतिष्ठा आत्मज्ञान की स्वाधीनता में है, उसमें ऊपर उठ जाता है। कहा जा सकता है कि ऐसे निष्काम कर्म में तो कोई निश्चिता, कोई अमोघता, कोई लाभदायक प्रेरक-भाव, कोई विशाल या ओज- सृष्टि- सामर्थ्य नहीं हो सकता? ऐसा नहीं है; योगस्थ होकर किया जाने वाला कर्म न केवल उच्चतम प्रत्युत अत्यंत ज्ञानपूर्ण, सांसारिक विषयों के लिये भी अत्यंत शक्तिशाली और अत्यंत अमोघ होता है; क्योंकि उसमें सब कर्मों के स्वामी भगवान् का ज्ञान और संकल्प भरा रहता है; “योग है, कर्म की कुशलता,” परंतु जीवन के लिये किया जाने वाला कर्म योगी को उसके महान ध्येय से दूर ले जाता है और यह बात तो सर्वसम्म्त ही है, कि योगी का ध्येय इस दुख- शोकमय मानव- जन्म के बंधन से छुटकारा पाना होता है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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