श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
युगल-केलि (प्रेम-विहार)
राधा-श्यामसुन्दर अपने प्राणों में अनंत प्रेम-तृषा लेकर प्रेम-मार्ग में अग्रसर हुए हैं। प्रेम-तृषा का सिंचन रूप-जल से होता है। रूप- सौदर्य का सर्वागपूर्ण और विशद प्रकाश श्रृंगाल-केलि में होता है। अत: ध्रुवदासजी ने प्रेम-तृषा की बेलि के लिए श्रृंगाल-केलि को ‘अदन-रस’[1] बतलाया है। प्रेम तृषा-प्रधान होता है और रूप केलि-प्रधान। श्यामसुन्दर में प्रेम की तृषा मूर्तिमती हुई है और श्रीराधा में अनंग की केलि। हित प्रभु ने अपने एक पद में श्रीराधा को ‘रसिक काम की केलि' कहा है- ‘तू व ललना रसिक काम की केलि री’। प्रेम और रूप के तृषा और केलि के नित्य संयोग से प्रेम का विहार अखण्ड एक रस चलता रहता है। प्रत्येक श्रृंगार-क्रीडा की भाँति इस प्रेम-विहार का आरंभ भी रूप- दर्शन से होता है। श्याम सुन्दर स्वयं सौन्दर्य के अनन्य धाम हैं, उनको देखकर करोड़ों रति-काम लज्जित हो जाते हैं। किन्तु रूप-सौन्दर्य की साक्षात् मूर्ति प्रेम-स्वरूपा श्री राधा की प्रेममई चितवनि और रसमई भ्रकुटियों से जिस प्रेममय अनंग की उत्पत्ति होती है, उसने इन मदनमोहन को भी मोहित कर लिया है। श्रीराधा के अद्भुत रूप को देखकर वे विथकित हो जाते हैं और उनके शरीर में वे पथ-कंप-उत्पन्न हो जाता है- ‘अद्भुत छटा विलोकि अवनि पर विथकित वे पथ गात’। रूप-दर्शन से उनका मन प्रेम-समुद्र में डूबने लगता है और उन को अपने देह की सुध-बुध भूल जाती है। उसी समय ‘नागरता की राशि’ श्रीराधा उनको अपनी कोमल बाहु- लताओं में आवद्ध कर लेती हैं और उनको अधरामृत का पान कराकर बलपूर्वक प्रेम-भँवर से निकाल लेती है। महामधु का पान करके श्याम सुन्दर के प्राणों को वैसा ही अवलंब मिल जाता है जैसा जल के मिलने से मीन को और वे महामन्मथ के रंग में रंगकर सावधान बन जाते हैं। दोनों ओर से समान सिंचन पाकर केलि-बेलि बढ़ने लगती है। प्रियतन के द्वारा उरज-स्पर्श की चेष्टा और प्रिया के द्वारा उनका गोपन, “प्रतिपद-प्रतिकूल’ कामिनी के द्वारा ‘कुटिल भृकुटि-अव-लोकन, और अनुराग-विवश आतुत प्रियतम के द्वारा प्रिया का गाढ़ आलिंगन, नागर प्रियतम के द्वारा नीवी-बंधन-मोचन और नागरी प्रिया का कपट पूर्ण कोप-प्रदर्शन और रसपूर्ण ‘नेति-नेति’ कथन, प्रिया द्वारा प्रियतम का परिरंभन और विपरीत-रति-वितरण आदि प्रेम-प्रसंगों के द्वारा प्रेम और रूप की यह अनादि क्रीडा नित्य-नूतन प्रकारों में प्रकाशित होती रहती है। सुरत के अंत में युगल के सुन्दर ललाट-पटल पर श्रम-जल- सीकर झलक आते हैं और अभंग अनुराग वाली ललितादिक सखी गुण अंचल-पवन के द्वारा युगल का श्रम-अपनोदन करती हैं।[2] इस प्रेम-विहार में नृत्य, संगीत ओर श्रृंगार की कलाओं का क्षण-क्षण में प्रकाश होता रहता है। युगल नृत्य, संगीत और अभिनय की परावधि हैं। उन में रस और रसिका दोनों की सीमाऐं आकर मिली हैं। उनकी रसिकता उनके गुणों को उभारती है और उन के गुण उनकी रसिकता को उद्दीप्त बनाते रहते हैं। ‘हंस सुता के तट पर अति मधुर और महामोहन ध्वनि सदैव उत्पन्न होती रहती है और युगल के मुख से ‘थेई-थेई’ वचन निकलते रहते हैं, जिनको सुनकर सखीजनों को देह-दशा भूल जाती है। युगल के मृदु पदन्यास से कुंकुम-रज उठती है और नृत्य की गति से उनके दुकूल अद्भुत रीति से उड़ते रहते हैं। नृत्य के बीच-बीच में श्याम सुन्दर श्यामा के अधर, कच, कुच, हार और भुजमूल का स्पर्श करते हैं। इन दोनों के लावण्य रूप और अभिनय-गुणों की समता कोटि कामदेव भी नहीं कर सकते। इनके भृकुटि-विलास और मृदु हास से प्रेम-रस की वर्षा होती रहती है।’[3] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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