श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
युगल-केलि (प्रेम-विहार)
केवल रास-क्रीड़ा ही नहीं युगल का संपूर्ण रास-विलास प्रेममय, सौन्दर्यमय, संगीतमय, नृत्यमय और अभिनय मय होता है। युगल की कटि-किंकिणी और चरण-नुपुरों से सदैव संगीत की मंद-मंद तरंगें उठती रहती हैं, उनके आभूषणों की ध्वनि सुनकर यमुना-तीर के हंस बोलने लगते हैं। ‘उनके गान को सुनकर खग-मृग पुलकित हो जाते हैं और जल का प्रवाह रुक जाता है।' गावत सुन्दरि-हरि सरस धमारि। ‘उनके नृत्य- अभिनय को देखकर उड्डगण चकित हो जाते हैं; शशि-मंडल थकित हो जाता है और कोटि काम देवों के मन लुट जाते है।’ उड्डगण चकित थकित ससि-मंडल कोटि मदन-मन लूटे।[2] यह दोनों श्रृंगार की कलाओं में भी अत्यन्त कुशल हैं, और परस्पर प्रेम-सौन्दर्य की आस्वाद बड़ी नागरता से करते हैं। श्रीहित हरिवंश को इनका नागर-नागरी रूप ही प्रिय है, और उसी का गान उन्होंने अपने पदों में किया है। एक पद में वे कहते हैं, ‘नवल नागरी और नवल नागर किशोर ने मिलकर, निकुंज-भवन में, कोमल कमल-दलों से शय्या की रचना की है, उस पर रुचिर ‘गौर-साँवल अंग’ इस प्रकार मिले हैं मानो रसर नीलमिण मृदुल कंचन में जड़ गई है। ‘सुरत नीवी-निबंध’ के लिये मानिनी प्रिया की भुजाओं में मनोहर कलह मची है। सुभग उरजों के स्पर्श करते ही नागरी प्रिया प्रणय- कोप से हुँकार करती है और रूप-गर्व से उनके द्दग भंगिमा-मंडित हो जाते हैं। नागर-नागरी के इस एकान्त विलास में श्रृंगार की करोड़ों समृद्ध कलाएँ प्रकाशित होती हैं। प्रणय मय रसिक ललितादिक सखियाँ अपने नेत्र रूपी, चषकों[3] से रस-मकरंद का पान करती रहती हैं।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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