सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग केदारौ
(309) श्री हरि की आरती बहुत ही सजी हुई है। अत्यन्त विचित्र रचना उस आरती में (प्रभु ने) कर रखी है, जिसकी गणना (वर्णन) वाणी से हो नहीं पाती। (सब लोकों के मूलाधार भगवान्) कच्छप तो (उस आरती के) नीचे का अत्यन्त अनुपम आसन हैं और सहस्र फण वाले शेष नाग उसकी डाँड़ी हैं। पृथ्वी ही उसकी कटोरी है, जिसमें घृत रूप से सातों समुद्र भरे हैं और पर्वतों की घनी (मोटी) बत्ती है। सूर्य और चन्द्रमा रूपी ज्योति जगत् में परिपूर्ण हो कर रात्रि के अन्धकार का हरण करती हैं आकाशरूपी स्थान में तारागण रूपी पुष्प उड़ रहे हैं और बादलों की सघन घटा अञ्जन (आरती की ज्योति से निकली कालिमा) के समान छायी हुई है। नारद आदि, सनकादि, प्रजापति तथ देवता, मनुष्य एवं असुरों का समूह आरती का गान कर रहा है; काल, कर्म और गुणों का ओर-छोर नहीं है; (काल, कर्म, गुण से बनी अनन्त सृष्टि) प्रभु की इच्छा से हुई रचना है। (आरती में प्रभु के इस अनन्त महत्त्व का गान हो रहा हैं।) सूरदास जी कहते हैं कि यह अत्यन्त विचित्र सजावट ध्यान में (विचार करके देखने पर) सब-की-सब प्रत्यक्ष है।
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