सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग धनाश्री
(209) श्री हरि! मेरे समान पतित और कोई नहीं है। हे प्रभु! आप अन्तर्यामी हैं; मैंने जो कर्म किये हैं, उन्हें आप जानते ही हैं। मैं ऐसा अंधा (अज्ञानी), अधम, विचारहीन हूँ कि असत्य (भोगों) को भी सत्य कहता (मानता) हूँ। मैंने विषयी पुरुषों की सेवा की; किंतु विरक्त संतों की सेवा नहीं की। धन और भवन में मन लगाये रहा। जैसे मक्खी कस्तूरी से उपलिप्त शरीर को छोड़कर दुर्गन्धित पीब आदि पर बैठती है, वैसे ही मेरा मूर्ख मन विषय-भोग रूपी गुंजा को ले कर (भगवन्नामरूपी) चिन्तामणि को भूल गया। ऐसे दूसरे भी पतित हुए हैं, जो आप पर अवलम्बित होने से (आपकी शरण लेने से) एक क्षण में तर गये (मुक्त हो गये)। यह सूरदास पतित हैं और आप पतितों का उद्धार करने वाले हैं, इस अपने सुयश की लज्जा कीजिये (अपने सुयश की रक्षा के लिये मेरा उद्धार कीजिये)! |
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