राजा दुष्यंत शकुन्तला से कहते है, कि उसने उनका मन हर लिया है और वे उसे अपनी पत्नी बनाना चाहते हैं। और वह शकुन्तला से उसके जन्म से सम्बन्धित सभी बातें पूछते है, जिसका विवरण महाभारत आदिपर्व के ‘सम्भवपर्व’ के अंतर्गत अध्याय 71 के अनुसार इस प्रकार हुआ है।[1]-
दुष्यन्त बोले- महाभागे! विश्ववन्द्य कण्व तो नैष्ठिक ब्रह्मचारी हैं, वे बड़े कठोर व्रत का पालन करते हैं। साक्षात् धर्मराज भी अपने सदाचार से विचलित हो सकते हैं, परंतु महर्षि कण्व नहीं। ऐसी दशा में तुम जैसी सुन्दरी देवी उनकी पुत्री कैसे हो सकती है?
इस विषय में मुझे बड़ा भारी संदेह हो रहा है। मेरे इस संदेह का निवारण तुम्ही कर सकती हो। शकुन्तला ने कहा - राजन्! ये सब बातें मुझे जिस प्रकार ज्ञात हुई हैं, मेरा यह जन्म आदि पूर्वकाल में जिस प्रकार हुआ है और मैं जिस प्रकार कण्व मुनि की पुत्री हूं, वह सब वृत्तान्त ठीक-ठीक बता रही हूं; सुनिये। जिसका स्वरूप तो अन्य प्रकार का है, किंतु जो सत्पुरुषों के सामने उसका अन्य प्रकार से ही परिचय देता है, अर्थात् जो पापात्मा होते हुए भी अपने को धर्मात्मा कहता है, वह मूर्ख, पाप से आवृत, चोर एवं आत्मवन्चक है। पृथ्वीपते! एक दिन किसी ऋषि ने यहाँ आकर मेरे जन्म के सम्बन्ध में मुनि से पूछा- ‘कश्यपनन्दन! आप तो ऊर्ध्वरेता ब्रह्मचारी हैं, फिर यह शकुन्तला कहाँ से आयी? आपसे पुत्री का जन्म कैसे हुआ? यह मुझे सच-सच बताईये।’ उस समय भगवान् कण्व ने उससे जो बात बतायी, वही कहती हूं, सुनिये। सुनिये। कण्व बोले - पहले की बात है, महर्षि विश्वामित्र बड़ी भारी तपस्या कर रहे थे। उन्होंने देवताओं के स्वामी इन्द्र को अपनी तपस्या से अत्यन्त संताप में डाल दिया। इन्द्र को यह भय हो गया कि तपस्या से अधिक शक्ति-शाली होकर ये विश्वामित्र मुझे अपने स्थान से भ्रष्ट कर देंगे, अतः उन्होंने मेनका से इस प्रकार कहा।
विषय सूची
इन्द्र द्वारा मेनका को विश्वामित्र के पास जाने की आज्ञा देना
‘मेनके! अप्सराओं के जो दिव्य गुण हैं, वे तुममें सबसे अधिक हैं। कल्याणी! तुम मेरा भला करो और मैं तुमसे जो बात कहता हूं, सुनो वे सूर्य के समान तेजस्वी, महा तपस्वी विश्वामित्र घोर तपस्या में संलग्न हो मेरे मन को कंपित कर रहे हैं। ‘ सुन्दरी मेनके! उन्हें तपस्या से विचलित करने का यह महान् भार मैं तुम्हारे ऊपर छोड़ता हूँ। विश्वामित्र का अन्तःकरण शुद्ध ह उन्हें पराजित करना अत्यन्त कठिन है और वे इस समय घोर तपस्या में लगे हैं। ‘ अतः ऐसा करो जिससे वे मुझे अपने स्थान से भ्रष्ट न कर सकें। तुम उनके पास जाकर उन्हें लुभाओ, उनकी तपस्या मे विघ्न डाल दो और इस प्रकार मेरे विघ्न के निवारण का उत्तम साधन प्रस्तुत करो। ‘वरारोहे! अपने रूप, जवानी, मधुर स्वाभाव, हावभाव, मंद मुस्कान और सरस वार्तालाप आदि के द्वारा मुनि को लुभाकर उन्हें तपस्या से निवृत्त कर दो’। मेनका बोली- देवराज! भगवान विश्वामित्र बड़े भारी तेजस्वी और महान तपस्वी हैं। वे क्रोधी भी बहुत हैं। उनके इस स्वभाव को आप भी जानते हैं। जिन महात्मा के तेज, तप और क्रोध से आप भी उदिग्न हो उठते हैं, उनसे मैं कैसे नहीं डरूंगी?
विश्वामित्र ऋषि वे ही हैं जिन्होंने महाभाग महर्षि वशिष्ठ का उनके प्यारे पुत्रों से सदा के लिये वियोग करा दिया; जो पहले क्षत्रिय कुल में उत्पन्न होकर भी तपस्या वल से ब्राह्मण बन गये; जिन्होंने अपने शौच-स्नान की सुविधा के लिये अगाध जल से भरी हुई उस दुर्गम नदी का निर्माण किया, जिसे लोक में सब मनुष्य अत्यन्त पुण्यमयी कौशिकी नदी के नाम से जानते हैं। विश्वामित्र महर्षि वे ही हैं, जिनकी पत्नी को पूर्वकाल में संकट के समय शाप वश व्याध बने हुए धर्मात्मा राजर्षि मतंग ने भरण-पोषण किया था। दुर्भिक्ष बीत जाने पर उन शक्तिशाली मुनि ने पुनः आश्रम पर आकर उस नदी का नाम ‘पारा’ रख दिया था। सुरेश्वर! उन्होंने मतंग मुनि के किये हुए उपकार से प्रसन्न होकर स्वयं पुरोहित बनकर उनका यज्ञ कराया; जिसमें उनके भय से आप भी सोमपान करने के लिये पधारे थे। उन्होंने ही कुपित होकर दूसरे लोक की सृष्टि की नक्षत्र-संपत्ति से रूठ कर प्रतिश्रवण आदि नूतन नक्षत्रों का निर्माण किया था। ये वही महात्मा हैं जिन्होंने गुरु के शाप से हीनावस्था पड़े हुए राजा त्रिषंक को भी शरण दी थी।
उस समय यह सोचकर कि ‘विश्वामित्र ब्रह्मर्षि वसिष्ठ के शाप को कैसे छुड़ा देंगे?’ देवताओं ने उनकी अवहेलना करके त्रिशंकु के यज्ञ की वह सारी सामग्री नष्ट कर दी। परंतु महातेजस्वी शक्तिशाली विश्वामित्र ने दूसरी यज्ञ-सामग्रियों की सृष्टि कर ली तथा उन महातपस्वी ने त्रिशंकु को स्वर्गलोक में पहुँचा ही दिया। जिनके ऐसे-ऐसे अद्भुत कर्म हैं, उन महात्माओं से मैं बहुत डरती हूँ। प्रभु! जिससे वे कुपित हो मुझे भष्म न कर दें, ऐसे कार्य के लिये मुझे आज्ञा दीजिये। वे अपने तेज से सम्पूर्ण लोकों को भष्म कर सकते हैं, पैर के आघात से पृथ्वी को कंपा सकते हैं, विशाल मेरु पर्वत को छोटा बना सकते हैं और सम्पूर्ण दिशाओं में तुरन्त उलट-फेर कर सकते हैं।[2]
प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी, तपस्वी और जितेन्द्रिय महात्मा का मुझ जैसी नारी कैसे स्पर्श कर सकती है? सुरश्रेष्ठ! अग्नि जिनका मुख है, सूर्य और चन्द्रमा जिनकी आंखों के तारे हैं और काल जिनकी जिह्वा है, उन तेजस्वी महर्षि को मेरी जैसी स्त्री कैसे छू सकती है? यमराज, चन्द्रमा, महर्षिगण, साध्यगण, विश्वेदेव और सम्पूर्ण बालखिल्य ऋषि - ये भी जिनके प्रभाव से उदिग्न रहते हैं, उन विश्वामित्र मुनि से मेरी जैसी स्त्री कैसे नहीं डरेगी? सुरेन्द्र! आपके इस प्रकार वहाँ जाने का आदेश देने पर मैं उन महर्षि के समीप कैसे नहीं जाऊंगी? किंतु देवराज! पहले मेरी रक्षा का कोई उपाय सोचिये; जिससे सुरक्षित रहकर मैं आपके कार्य की सिद्धि के लिये चेष्टा कर सकूं। देव! मैं वहाँ जाकर जब क्रीड़ा में निमग्न हो जाऊं उस समय वायुदेव आवश्यकता समझ कर मेरा वस्त्र उड़ा दें और इस कार्य में आपके प्रसाद से कामदेव भी मेरे सहायक हों। जब मैं ऋषि को लुभाने लगूं, उस समय वन से सुगन्ध भरी वायु चलनी चाहिये। ‘तथास्तु’ कहकर इन्द्र ने जब इस प्रकार की व्यवस्था कर दी तब मेनका विश्वामित्र मुनि के आश्रम पर गयी।[3]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत आदि पर्व अध्याय 71 श्लोक 13-21
- ↑ महाभारत आदि पर्व अध्याय 71 श्लोक 22-36
- ↑ महाभारत आदि पर्व अध्याय 71 श्लोक 37-42
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| भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध
| युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना
| हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना
| भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन
| घटोत्कच की उत्पत्ति
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| ब्राह्मण के चिन्तापूर्ण उद्गार
| ब्राह्मणी का पति से जीवित रहने के लिए अनुरोध करना
| ब्राह्मण कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन
| कुन्ती का ब्राह्मण कन्या के पास जाना
| कुन्ती का ब्राह्मण का दुख सुनना
| कुन्ती और ब्राह्मण की बातचीत
| भीम को वकासुर के पास भेजने का प्रस्ताव
| भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना
| भीम और वकासुर का युद्ध
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चैत्ररथ पर्व
पाण्डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना
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| कुन्ती का पांचाल देश में जाना
| व्यासजी का पाण्डवों से द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनाना
| पाण्डवों की पांचाल यात्रा
| अर्जुन द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं दोनों की मित्रता
| राजा संवरण का सूर्य कन्या तपती पर मोहित होना
| तपती और संवरण की बातचीत
| वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति
| गन्धर्व का ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिए आग्रह करना
| वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के आगे विश्वामित्र का पराभव
| शक्ति के शाप से कल्माषपाद का राक्षस होना
| कल्माषपाद का शाप से उद्धार
| वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति
| शक्ति पुत्र पराशर का जन्म
| पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण
| और्व और पितरों की बातचीत
| पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति
| कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप
| पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत
| ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना
| स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा
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वैवाहिक पर्व
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| व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना
| द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना
| द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह
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| सुन्द-उपसुन्द द्वारा त्रिलोक विजय
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अर्जुन द्वारा गोधन की रक्षा के लिए नियम-भंग
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| अर्जुन का मणिपूर में चित्रांगदा से पाणिग्रहण
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| अर्जुन का प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण से मिलना
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अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना
| यादवों की अर्जुन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी
हरणा हरण पर्व
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| अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना
| द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
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