उपरिचर का चरित्र

महाभारत आदि पर्व के ‘अंशावतरण पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 63 के अनुसार उपरिचर का चरित्र का वर्णन इस प्रकार है[1]-

वैशम्‍पायन जी कहते हैं - जनमेजय पहले उपरिचर नाम से प्रसिद्ध एक राजा हो गये हैं, जो नित्‍य-निरन्‍तर धर्म में ही लगे रहते थे। साथ ही सदा हिंसक पशुओं के शिकार के लिये वन में जाने का उनका नियम था। पौरवनन्‍दन राजा उपरिचर वसु ने इन्‍द्र के कहने से अत्‍यन्‍त रमणीय चेदिदेश का राज्‍य स्‍वीकार किया था। एक समय की वात है, राजा वसु अस्त्र-शस्त्रों का त्‍याग करके आश्रम में निवास करने लगे। उन्‍होंने बड़ा भारी तप किया जिससे वे तपोनिधि माने जाने लगे। उस समय इन्‍द्र आदि देवता यह सोचकर कि यह राजा तपस्‍या के द्वारा इन्‍द्र पद प्राप्त करना चाहता है, उनके समीप गये। देवताओं ने राजा को प्रत्‍यक्ष दर्शन देकर उन्‍हें शांतिपूर्वक समझाया और तपस्‍या से निवृत्त कर दिया। देवता बोले- पृथ्‍वीपते तुम्‍हें ऐसी चेष्टा रखनी चाहिये जिससे इस भूमि पर वर्ण संकरता न फैलने पावे (तुम्‍हारे न रहने से अराजकता फैलने का भय है जिससे प्रजा स्‍वधर्म में स्थिर नहीं रह सकेगी। अत: तुम्‍हें तपस्‍या न करके इस वसुधा का संरक्षण करना चाहिये)। राजन। तुम्‍हारे द्वारा सुरक्षित धर्म ही सम्‍पूर्ण जगत को धारण कर रहा है।

इन्‍द्र ने कहा - राजन तुम इस लोक में सदा सावधान और प्रयत्‍नशील रहकर धर्म का पालन करो। धर्मयुक्त रहने पर तुम सनातन पुण्‍य लोकों को प्राप्त कर सकोगे। यद्यपि में स्‍वर्ग में रहता हूँ और तुम भूमिपर; तथापि आज से तुम मेरे प्रिय सखा हो गये। नरेश्वर इस पृथ्‍वी पर जो सबसे सुन्‍दर एवं रमणीय देश हो, उसी में तुम निवास करो। इस समय चेदिदेश पशुओं के लिये हितकर, पुण्‍यजनक, पुण्य धन-धान्‍य से सम्‍पन्न, स्‍वर्ग के समान सुखद होने के कारण रक्षणीय, सौम्‍य तथा भोग्‍य पदार्थों और भूमि सम्‍बन्‍धी उत्तम गुणों से युक्‍त हैं। यह देश अनेक पदार्थों से युक्‍त और धन रत्‍न आदि सम्‍पन्‍न है। यहाँ की वसुधा वास्‍तव में वसु (धन-संपत्ति) से भूरी-पूरी है। अत: तुम चेदि देश के पालक होकर उसी में निवास करो। यहाँ के जनपद धर्मशील, संतोषी और साधु हैं। यहाँ हास-परिहास में भी कोई झूठ नहीं बोलता, फि‍र अन्‍य अवसरों पर तो बोल ही कैसे सकता है? पुत्र सदा गुरुजनों के हित में लगे रहते हैं, पिता अपने जीते-जी उनका बंटवारा नहीं करते। यहाँ के लोग बैलों को भार ढ़ोने में नहीं लगाते और दीनों एवं अनाथों का पोषण करते हैं। मानद चेदिदेश में सब वर्णों के लोग सदा अपने-अपने धर्म में स्थित रहते हैं। तीनों लोकों में जो कोई घटना होगी, वह सब यहाँ रहते हुए भी तुमसे छिपी न रहेगी- तुम सर्वज्ञ बने रहोगे। जो देवताओं के उपभोग में आने योग्‍य हैं, ऐसा स्फटिक मणि का बना हुआ एक दिव्‍य, आकाशचारी एवं विशाल विमान मैंने तुम्‍हें भेंट किया है।

वह आकाश में तुम्‍हारी सेवा के लिये सदा उपस्थित रहेगा। सम्‍पूर्ण मनुष्‍यों में एक तुम्‍हीं इस श्रेष्ट विमान पर वैठकर मूर्तिमान देवता की भाँति सबके ऊपर-ऊपर बिचरोगे। मैं तुम्‍हें यह वैजयन्‍ती माला देता हूं, जिसमें पिरोये हुए कमल कभी कुम्‍हलाये नहीं हैं। इसे धारण कर लेने पर यह माला संग्राम में तुम्‍हें अस्त्र-शस्त्रों के आघात से बचायेगी। नरेश्वर यह माला ही इन्‍द्रमाला के नाम से विख्‍यात होकर इस जगत में तुम्‍हारी पहचान कराने के कलये परम धन्‍य एवं अनुपम चिह्न होगी। ऐसा कहकर वृत्रासुर का नाश करने वाले इन्‍द्र ने राजा को प्रमोपहार स्‍वरुप बांस की एक छड़ी दी, जो शिष्ट पुरुषों की रक्षा करने वाली थी। तदनन्‍तर एक वर्ष बीतने पर भूपाल वसु ने इन्‍द्र की पूजा के लिये उस छड़ी को भूमि में गाड़ दिया। राजन तब से लेकर आज तक श्रेष्ठ राजाओं द्वारा छड़ी धरती में गाड़ी जाती है। वसु ने जो प्रथा चली दी, वह अब तक चली आती है।[1]

दूसरे दिन अर्थात नवीन संवत्‍सर के प्रथम दिन प्रतिपदा को वह छड़ी निकालकर बहुत ऊंचे स्‍थान में रखी जाती है; फि‍र कपड़े की पेटी, चन्‍दन, माला और आभूषणों से उसको सजाया जाता है। उसमें विधि पूर्वक फूलों के हार और सूत लपेटे जाते हैं। तत्‍पश्चात् उसी छड़ी पर देवेश्वर भगवान इन्‍द्र का हंस रुप से पूजन किया जाता है। इन्‍द्र ने महात्‍मा वसु के प्रेम वश स्‍वंय हंस का रुप धारण करके वह पूजा ग्रहण की। नृपश्रेष्ठ वसु के द्वारा की हुइ उस शुभ पूजा को देखकर प्रभावशाली भगवान महेन्‍द्र प्रसन्न हो गये और इस प्रकार बोले- ‘चेदिदेश के अधिपति उपरिचर वसु जिस प्रकार मेरी पूजा करेंगे और मेरे इस उत्‍सव को रचायेंगे, उनको और उनके समूचे राष्ट्र को लक्ष्‍मी एवं विजय की प्राप्ति होगी। ‘इतना ही नहीं, उनका सारा जनपद ही उत्तरोत्तर उन्नति शील और प्रसन्न होगा’ राजन! इस प्रकार महात्‍मा महेन्‍द्र ने, जिन्‍हें मघवा भी कहते हैं, प्रेम पूर्वक महाराज वसु का भली- भाँति सत्‍कार किया।

जो मनुष्‍य भूमि तथा रत्न आदि का दान करते हुए सदा देवराज इन्‍द्र का उत्‍सव रचायेंगे, वे इन्‍द्रोत्‍सव द्वारा इन्‍द्र का वरदान पाकर उसी उत्तम गति को पाजायेंगे, जिसे भूमिदान आदि के पुण्‍यों से युक्त मानव प्राप्‍त करते हैं। इन्‍द्र के द्वारा उपर्युक्‍त रुप से सम्‍मानित चेदिराज वसु ने चेदि देश में ही रहकर इस पृथ्‍वी का धर्मपूर्वक पालन किया किया। इन्‍द्र की प्रसन्नता के लिये चेदिराज वसु प्रति वर्ष इन्‍द्रोत्‍सव मनाया करते थे। उनके अनन्‍त बलशाली महापराक्रमी पांच पुत्र थे। सम्राट वसु ने विभिन्न राज्‍यों पर अपने पुत्रों को अभिषिक्त कर दिया। उनमें महारथी बृहद्रथ मगध देश का विख्‍यात राजा हुआ। दूसरे पुत्र का नाम प्रत्‍यग्रह था, तीसरा कुशाम्‍ब था, जिसे मणिवाहन भी कहते हैं। चौथा मावेल्ल था। पांचवा राजकुमार यदु था, जो युद्ध में किसी से पराजित नहीं होता था। राजा जनमेजय! महातेजस्‍वी राजर्षि वसु के इन पुत्रों ने अपने-अपने नाम से देश और नगर बसाये। पांचो वसु पुत्र भिन्न-भिन्न देशों के राजा थे और उन्‍होंने पृथक- पृथक अपनी सनातन वंश परम्‍परा चलायी। चेदिराज वसु के इन्‍द्र के दिये हुए स्‍फटिक मणिमय विमान में रहते हुए आकाश में ही निवास करते थे। उस समय उन महात्‍मा नरेश की सेवा में गन्‍धर्व और अप्‍सराएं उपस्थित होती थीं।

सदा ऊपर-ही-ऊपर चलने के कारण उनका नाम ‘राजा उपरिचर’ के रुप में विख्‍यात हो गया। उनकी राजधानी के समीप शुक्तिमती नदी बहती थी। एक समय कोलाहल नामक सचेतन पर्वत ने कामवश दिव्‍यरुप धारिणि नदी को रोक लिया। उसके रोकने से नदी की धारा रुक गयी। यह देख उपरिचर वसु ने कोलाहल पर्वत पर अपने पैर से प्रहार करते ही पर्वत में दरार पड़ गयी, जिससे निकल कर वह नदी पहले के समान बहने लगी। पर्वत ने नदी के गर्भ से एक पुत्र और एक कन्‍या, जुड़वी संतान उत्‍पन्न की थी। उसके अवरोध से मुक्त करने के कारण प्रसन्न हुई नदी ने राजा उपीरचर को अपनी दोनों संतानें समर्पित कर दीं।[2]

उनमें जो पुरुष था, उसे शत्रुओं का दमन करने वाले धनदाता राजर्षिप्रवर वसु ने अपना सेनापति बना लिया। और जो कन्‍या थी उसे राजा ने अपनी पत्नी बना लिया। उसका नाम था गिरिका बुद्धिमानों में श्रेष्ठ जनमेजय एक दिन ॠतुकाल को प्राप्‍त हो स्‍नान के पश्चात् शुद्ध हुई वसु पत्नी गिरिका ने पुत्र उत्पन्न होने योग्‍य समय में राजा से समागम की इच्‍छा प्रकट की। उसी दिन पितरों ने राजाओं में श्रेष्ठ वसु पर प्रसन्न हो उन्‍हें आज्ञादी तुम हिंसक पशुओं का वध करो। तब राजा पितरों की आज्ञा का उल्‍लघंन न करके कामनावश साक्षात दूसरी लक्ष्‍मी के समान अत्‍यन्‍त रुप और सौन्‍दर्य के वैभव से सम्‍पन्न गिरिका का ही चिन्‍तन करते हुए हिंसक पशुओं को मारने के लिये वन में गये।

राजा का वह वन देवताओं के चैत्ररथ नामक वन के समान शोभा पा रही थी। वसन्‍त का समय था, अशोक, चम्‍पा, आम अतिमुक्तक (माधवीलता), पुन्नाग (नागकेसर), कनेर, मौलसिरी, दिव्‍यपाटल, पाटल, नारियल, चन्‍दन तथा अर्जुन – ये स्‍वादिष्ट फलों से युक्त, रमणीय तथा पवित्र महावृक्ष उस वन की शोभा बढ़ा रहे थे। कोकिलाओं के कल-कूजन से समस्‍त वन गूंज उठा था। चारों ओर मतवाले भौंरे कल-कल नाद कर रहे थे। यह उद्दीपन-सामग्री पाकर राजा का हृदय काम वेदना से पीड़ित हो उठा। उस समय उन्‍हें अपनी रानी गिरीकर दर्शन नहीं हुआ। उसे न देखकर कामाग्नि से संतप्त हो वे इच्‍छानुसार इधर-उधर घूमने लगे। घूमते-घूमते उन्‍होंने एक रमणीय अशोक का वृक्ष देखा, जो पल्‍लवों से सुशोभित और पुष्‍प के गुच्‍छों से आच्‍छादित था। उसकी शाखाओं के अग्रभाग फूलों से ढके हुए थे। राजा उसी वृक्ष्‍ा के नीचे उसकी छाया में सुखपूर्वक बैठ गये। वह वृक्ष मकरन्‍द और सुगन्‍ध से भरा था। फूलों की गंध से वह बरबस मन को मोह लेता था। उस समय कामोद्दीपक वायु से प्रेरित हो राजा के मन में रति के लिये स्‍त्रीविषयक प्रीति उत्‍पन्न हुईं इस प्रकार वन में विचरने वाले राजा उपरिचर का वीर्य स्‍खलित हो गया। उसके स्‍खलित होते ही राजा ने यह सोचकर कि मेरा वीर्य व्‍यर्थ न जाय, उसे वृक्ष के पत्ते पर उठा लिया। उन्‍होंने विचार किया ‘मेरा यह स्‍खलित वीर्य व्‍यर्थ न हो साथ ही मेरी पत्नि गिरिका का ॠतुकाल भी व्‍यर्थ न जाये’ इस प्रकार बारम्‍बार विचार कर राजाओं में श्रेष्ठ वसु ने उस वीर्य को अमोघ बनाने का ही निश्‍चय किया।

तदनन्‍तर रानी के पास अपना वीर्य भेजने का उपयुक्‍त अवसर देख उन्‍होंने उस वीर्य को पुत्रोत्‍पत्तिकारक मन्‍त्रों द्वारा अभिमंत्रित किया। राजा वसु धर्म और अर्थ के सूक्ष्‍म तत्‍व को जानने वाले थे। उन्‍होंने अपने विमान के समीप ही बैठे हुए शीघ्रगामी श्‍वेन पक्षी (बाज) के पास जाकर कहा-‘सौम्‍य! तुम मेरा प्रिय करने के लिये यह वीर्य मेरे घर ले जाओ और महारानी गिरका को शीघ्र दे दो; क्‍योंकि आज ही उनका ॠतु काल है। ‘बाज वह वीर्य लेकर वड़े वेग के साथ तुरन्‍त वहाँ से उड़ गया। वह आकाशचारी पक्षी सर्वोत्तम वेग का आश्रय लेकर उड़ा जा रहा था, इतने में एक दूसरे बाज ने उसे आते देखा। उस बाज को देखते ही उसके पास मांस होने की आशंका से दूसरा बाज तत्‍काल उस पर टूट पड़ा। फि‍र वे दोनों पक्षी आकाश में एक दूसरे को चोंच मारते हुए युद्ध करने लगे। उन दोनों के युद्ध करते समय वह वीर्य यमुनाजी के जल में गिर पड़ा। अद्रिका नाम से विख्‍यात एक सुन्‍दरी अप्‍सरा ब्रह्माजी के शाप से मछली होकर वहीं यमुना जी के जल में रहती थी। बाज के पंजे से छूटकर गिरे हुए वसु सम्‍बन्‍धी उस वीर्य को मत्‍स्‍यरुपधारिणी अद्रिका ने वेग पूर्वक आकर निगल लिया। भरतश्रेष्ठ तत्‍पश्‍चात दसवां मांस आने पर मत्‍स्‍यजीवी मल्लाहों ने उस मछली को जाल में बांध लिया और उसके उदर को चीर कर एक कन्‍या और एक पुरुष निकाला। यह आश्‍चर्यजन घटना देखकर मछेरों ने राजा के पास जाकर निवेदन किया- ‘महाराज मछली के पेट से ये दो मनुष्‍य बालक उत्‍पन्न हुए हैं।’[3]

मछेरों की बात सुनकर राजा उपरिचर ने उस समय उन दोनों बालकों में से जो पुरुष था, उसे स्‍वयं ग्रहण कर ‍लिया। वही मत्‍स्‍य नामक धर्मात्‍मा एवं सत्‍यपतिज्ञ राजा हुआ। इधर वह शुभलक्षणा अप्‍सरा अद्रिका क्षण भर में शापमुक्त हो गयी। भगवान ब्रह्माजी ने पहले ही उससे कह दिया था कि तिर्यग योनि में पड़ी हुई तुम दो मानव-संतानों को जन्‍म देकर शाप से छूट जाओगी। अत: मछली मारने वाले मल्‍लाह ने जब उसे काटा तो वह मानव-बालकों को जन्‍म देकर मछली का रुप छोड़ दिव्‍य रुप को प्राप्त हो गयी। इस प्रकार वह सुन्‍दरी अप्‍सरा सिद्ध म‍हर्षि और चारणों के पथ से स्‍वर्गलोक चली गयी। उन जुड़वी संतानों में जो कन्‍या थी, मछली की पुत्री होने से उसके शरीर से मछली की गन्‍ध आती थी। अत: राजा ने उसे मल्‍लाह को सौंप दिया और कहा- ‘यह तेरी पुत्री होकर रहे।’ वह रुप और सत्‍व (सत्‍य) से संयुक्त तथा समस्‍त सद्गुणों से सम्‍पन्न होने के कारण ‘सत्‍यवती’ नाम से प्रसिद्ध हुई। मछेरों के आश्रय में रहने के कारण वह पवित्र मुस्‍कान वाली कन्‍या कुछ काल तक मत्‍स्‍यगन्‍धा नाम से ही विख्‍यात रही। वह पिता की सेवा के लिये यमुनाजी के जल में नाव चलाया करती थी। एक दिन तीर्थ यात्रा के उद्देश्‍य से सब ओर विचरने वाले म‍हर्षि पराशर ने उसे देखा। वह अतिशय रुप सौन्‍दर्य से सुशोभित थी। सिद्धों के हृदय में भी उसे पाने की अभिलाषा जाग उठती थी। उसकी हंसी बड़ी मोहक थी, उसकी जांघें कदली की सी शोभा धारण करती थीं। उस दिव्‍य वसु कुमारी को देखकर परम बुद्धिमान मुनिवर पराशर ने उसके साथ समागम की इच्‍छा प्रकट की। और कहा- कल्‍याणी! मेरे साथ संगम करो। वह बोली- भगवन! देखिये नदी के आर-पार दोनों तटों पर बहुत से ऋषि खड़े हैं। ‘और हम दोनों को देख रहे हैं। ऐसी दशा में हमारा समागम कैसे हो सकता है?’ उसके ऐसा कहने पर शक्तिशाली भगवान पराशर ने कुहरे की सृष्टि की। जिससे वहाँ का सारा प्रदेश अंधकार से आच्‍छादित-सा हो गया। महर्षि द्वारा कुहरे की सृष्टि देखकर वह तपस्विनी कन्‍या आश्‍चर्यचकित एवं लज्जित हो गयी।[4]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 63 श्लोक 1-19
  2. महाभारत आदि पर्व अध्याय 63 श्लोक 20-47
  3. महाभारत आदि पर्व अध्याय 63 श्लोक 48-62
  4. महाभारत आदि पर्व अध्याय 63 श्लोक 63-80

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जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव | धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा | दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना | पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश | वारणावत में पाण्डवों का स्वागत | लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत | विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण | लाक्षागृह का दाह | विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना | हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश | कुन्ती के लिए भीम का जल लाना | माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना | भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध | हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना | भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध | युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना | हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना | भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन | घटोत्कच की उत्पत्ति | पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
ब्राह्मण परिवार का कष्ट दूर करने हेतु कुन्ती-भीम की बातचीत | ब्राह्मण के चिन्तापूर्ण उद्गार | ब्राह्मणी का पति से जीवित रहने के लिए अनुरोध करना | ब्राह्मण कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन | कुन्ती का ब्राह्मण कन्या के पास जाना | कुन्ती का ब्राह्मण का दुख सुनना | कुन्ती और ब्राह्मण की बातचीत | भीम को वकासुर के पास भेजने का प्रस्ताव | भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना | भीम और वकासुर का युद्ध | वकासुर वध से भयभीत राक्षसों का पलायन
चैत्ररथ पर्व
पाण्डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना | द्रोण का द्रुपद द्वारा अपमानित होने का वृत्तांत | द्रुपद के यज्ञ से धृष्टद्युम्न और द्रौपदी का जन्म | कुन्ती का पांचाल देश में जाना | व्यासजी का पाण्डवों से द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनाना | पाण्डवों की पांचाल यात्रा | अर्जुन द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं दोनों की मित्रता | राजा संवरण का सूर्य कन्या तपती पर मोहित होना | तपती और संवरण की बातचीत | वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति | गन्धर्व का ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिए आग्रह करना | वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के आगे विश्वामित्र का पराभव | शक्ति के शाप से कल्माषपाद का राक्षस होना | कल्माषपाद का शाप से उद्धार | वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति | शक्ति पुत्र पराशर का जन्म | पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण | और्व और पितरों की बातचीत | पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति | कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप | पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत | ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना | स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा | धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना | राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना | अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना | भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा | कृष्ण-बलराम का वार्तालाप | अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय | द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना | कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत | पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह | श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट | धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना | द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना | पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान | द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन | द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार | व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना | द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना | द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह | कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व
पाण्डवों के विवाह से दुर्योधन को चिन्ता | धृतराष्ट्र का पाण्डवों के प्रति प्रेम का दिखावा | धृतराष्ट्र-दुर्योधन की बातचीत, शत्रुओं को वश में करने के उपाय | पाण्डवों को पराक्रम से दबाने के लिए कर्ण की सम्मति | भीष्म की दुर्योधन से पाण्डवों को आधा राज्य देने की सलाह | द्रोणाचार्य की पाण्डवों को उपहार भेजने की सम्मति | विदुर की सम्मति, द्रोण-भीष्म के वचनों का समर्थन | धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर का द्रुपद के पास जाना | पाण्डवों का हस्तिनापुर आना | इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण | श्रीकृष्ण-बलरामजी का द्वारका प्रस्थान | पाण्डवों के यहाँ नारदजी का आगमन | नारद द्वारा सुन्द-उपसुन्द कथा का प्रस्ताव | सुन्द-उपसुन्द की तपस्या | सुन्द-उपसुन्द द्वारा त्रिलोक विजय | तिलोत्तमा की उत्पत्ति एवं सुन्दोपसुन्द को मोहित करने हेतु प्रस्थान | तिलोत्तमा की वजह से सुन्द-उपसुन्द में लड़ाई | तिलोत्तमा को ब्रह्माजी द्वारा वरदान | पाण्डवों का द्रौपदी के विषय में नियम-निर्धारण
अर्जुन वनवास पर्व
अर्जुन द्वारा गोधन की रक्षा के लिए नियम-भंग | अर्जुन का गंगाद्वार में रुकना एवं उलूपी से मिलन | अर्जुन का मणिपूर में चित्रांगदा से पाणिग्रहण | अर्जुन द्वारा वर्गा अप्सरा का उद्धार | वर्गा की आत्मकथा | अर्जुन का प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण से मिलना
सुभद्रा हरण पर्व
अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना | यादवों की अर्जुन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी
हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह | अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना | द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
खाण्डव दाह पर्व
युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता | अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना | राजा श्वेतकि की कथा | अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना | अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना | खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा | देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
मय दर्शन पर्व
खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा | मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति | जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना | जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद | शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना | मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना | इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान

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