पाण्डवों का हस्तिनापुर आना

महाभारत आदि पर्व के ‘विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 206 के अनुसार पाण्डवों का हस्तिनापुर आने की कथा का वर्णन इस प्रकार है[1]-

द्रुपद पाण्डव व श्रीकृष्ण का संवाद

द्रुपद बोले- महाप्राज्ञ विदुरजी! आज आपने जो मुझसे कहा है, सब ठीक है। प्रभो! (कौरवों के साथ) यह सम्‍बन्‍ध हो जाने से मुझे भी महान् हर्ष हुआ है। महात्‍मा पाण्‍डवों का अपने नगर में जाना भी अत्‍यन्‍त उचित ही है। तथापि मेरे लिये अपने मुख से इन्‍हें जाने के लिये कहना उचित नहीं है। यदि कुन्‍तीकुमार वीरवर युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन और नरश्रेष्‍ठ नकुल- सहदेव जाना उचित समझें तथा धर्मज्ञ बलराम और श्रीकृष्‍ण पाण्‍डवों को वहाँ जाना उचित समझते हों तो ये अवश्‍य वहाँ जायं; क्‍योंकि ये दोनों पुरुषसिंह सदा इनके प्रिय और हित में लगे रहते हैं। युधिष्ठिर ने कहा- राजन्! हम सब लोग अपने सेवकों सहित सदा आपके अधीन हैं। आप स्‍वयं प्रसन्‍नता पूर्वक हमसे जैसा कहेंगे, वही हम करेंगे। वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय! तब वसुदेव नन्‍दन श्रीकृष्‍ण ने कहा- ‘मुझे तो इनका जाना ही ठीक जान पड़ता है। अथवा सब धर्मों के ज्ञाता महाराज द्रुपद जैसा उचित समझें, वैसा किया जाय ’। द्रुपद बोले- दशार्हकुल के रत्‍न वीरवर पुरुषोत्‍तम महाबाहु श्रीकृष्‍ण इस समय जो कर्तव्‍य उचित समझते हों, निश्‍चय ही मेरी भी वहीं सम्‍मति है। महाभाग कुन्‍ती पुत्र इस समय मेरे लिये जैसे अपने हैं, उसी प्रकार इन भगवान् वासुदेव के लिये भी समस्‍त पाण्‍डव उतने ही प्रिय एंव आत्‍मीय हैं-इसमें संशय नहीं है। पुरुषोत्‍तम केशव जिस प्रकार इन पाण्‍डवों के श्रेय (अत्‍यन्‍त हित) का ध्‍यान रखते हैं, उतना ध्‍यान कुन्‍तीनन्‍दन पाण्‍डु पुत्र युधिष्ठिर भी नहीं रखते। वैशम्‍पायनजी कहते हैं-जनमेजय! उसी प्रकार महातेजस्‍वी विदुर कुन्‍ती के भवन में गये। वहाँ उन्‍होंने धरती पर माथा टेककर चरणों में प्रणाम किया।[1]

कुन्ती का विदुर को देख विलाप करना

विदुर को आया देख कुन्‍ती बार-बार शोक करने लगी।। कुन्‍ती बोली- विदुरजी! आपके पुत्र पाण्‍डव किसी प्रकार आपके ही कृपा प्रसाद से जीवित हैं। लाक्षा गृह में आपने इन सबके प्राण बचाये हैं और अब यह पुन: आपके समीप जीते-जागते लौट आये हैं। कछुआ अपने पुत्रों का, वे कहीं भी क्‍यों न हो, मन से चिन्‍तन करता रहता है। इस चिन्‍ता से ही अपने पुत्रों का वह पालन पोषण एवं संवर्धन करता है।उसी के अनुसार जैसे वे सकुशल जीवि‍त रहते हैं, वैसे ही आपके पुत्र पाण्‍डव (आपकी ही मंगल-कामना से) जी रहे हैं! भरतश्रेष्‍ठ! आप ही इनके रक्षक हैं। तात! जैसे कोयल के पुत्रों का पालन पोषण सदा कौए की माता करती है, उसी प्रकार आपके पुत्रों की रक्षा मैंने ही की है। अब तक मैंने बहुत से प्राणान्‍तक कष्‍ठ उठाये हैं; इसके बाद मेरा क्‍या कर्तव्‍य है, यह मैं नही जानती। यह सब आप ही जानें![1]

विदुर का कुन्ती को समझाना

वैशम्‍पायनजी कहते हैं- यों कहकर दु:ख से पीड़ित हुई कुन्‍ती अत्‍यन्‍त आतुर होकर शोक करने लगी। उस समय विदुर ने उन्‍हें प्रणाम करके कहा, तुम शोक न करो। विदुर बोले- यदुकुलनन्दिनी! तुम्‍हारे महाबली पुत्र संसार में (दूसरों के सताने से) नष्‍ट नहीं हो सकते। अब वे थोड़े ही दिनों में समस्‍त बन्‍धुओं के साथ अपने राज्‍य पर अधिकार करने वाले हैं। अत: तुम शोक मत करो। वैशम्‍पायनजी कहते हैं- राजन्! तदनन्‍तर महात्‍मा द्रुपद की आज्ञा पाकर पाण्‍डव, श्रीकृष्‍ण और विदुर द्रुपद कुमारी कृष्‍णा और यशस्विनी कुन्‍ती को साथ ले आमोद-प्रमोद करते हुए हस्तिनापुर की ओर चले।[1]

द्रुपद का पाण्डवों को उपहार भेंट करना

उस समय राजा द्रुपद ने उन्‍हें एक हजार सुन्‍दर हाथी प्रदान किये, जिनकी पीठों पर सोने के हौदे कसे हुए थे और गले में सोने के आभूषण शोभा पा रहे थे। उनके अंकुश भी सोने के ही थे। जाम्‍बूनद नामक सुवर्ण से उन सबको सजाया गया था। उनके मण्‍डस्‍थल से मद की धारा बह रही थी। बड़े-बड़े महावत उन सबका संचालन करते थे। वे सभी गजराज सम्‍पूर्ण अस्‍त्र-शस्‍त्रों से सम्‍पन्‍न थे। राजा ने पांचों पाण्‍डवों के लिये चार घोडों से जुते हुए एक हजार रथ दिये, जो सुवर्ण और मणियों से विभूषित होने के कारण विचित्र शोभा धारण करते थे और सब ओर अपनी प्रभा बिखेर रहे थे। इतना ही नहीं, राजा ने अच्‍छी जाति के पचास हजार घोड़े भी दिये, जो सुनहरे साज-बाज से सुसज्जित और सुन्‍दर चंबर तथा मालाओं से अलंकृत थे। इनके सिवा सुन्‍दर आभूषणों से विभूषित दस हजार दासियां भी दीं। साथ ही उत्‍तम धनुष धारण करने वाले एक हजार दास पाण्‍डवों को भेंट किये। बहुत-सी शय्‍याएं, आसन और पात्र भी दिये जो सब-के-सब सुवर्ण के बने हुए थे। दूसरे दूसरे द्रव्‍य और गोधन भी समर्पित किये। इन सबकी पृथक-पृथक संख्‍या एक-एक करोड़ थी। इस प्रकार पाञ्चालराज द्रुपद ने बड़े हर्ष और उल्‍लास के साथ पाण्‍डवों को उपर्युक्‍त वस्‍तुएं अर्पित कीं। सौ पालकियां और उनको ढोने वाले पांच सौ कहार दिये। इस प्रकार पाञ्चालराज ने अपनी कन्‍या के लिये ये सभी वस्‍तुएं तथा बहुत-सा धन दहेज में दिया।[2]

हस्तिनापुर में पाण्डवों व द्रौपदी का स्वागत

जनमेजय! धृष्‍टधुम्न स्‍वयं अपनी बहिन का हाथ पकड़कर सवारी पर बैठाने के लिये ले गये। उस समय सहस्‍त्रों प्रकार के बाजे एक साथ बज उठे। राजा धृतराष्‍ट्र ने पाण्‍डव वीरों का आगमन सुनकर उनकी अगवानी के लिये कौरवों को भेजा। भारत! विकर्ण, महान् धनुर्धर चित्रसेन, विशाल धनुष वाले द्रोणाचार्य, गौतमवंशी कृपाचार्य आदि भेजे गये थे। इन सबसे से घिरे हुए शोभाशाली महाबली वीर पाण्‍डवों ने तब धीरे-धीरे हस्तिनापुर नगर में प्रवेश किया। पाण्‍डवों का आगमन सुनकर नागरिकों ने कौतूहलवश हस्तिनापुर नगर को (अच्‍छी तरह से) सजा रखा था। सड़कों पर सब ओर फूल बिखेरे गये थे, जल का छिड़काव किया गया था, सारा नगर दिव्‍य धूप की सुगन्‍ध से महं-महं कर रहा था और भाँति-भाँति की प्रसाधन-सामग्रि‍यों से सजाया गया था। पताकाएं फहराती थीं और ऊंचे गृहों में पुष्‍पहार सुशोभित होते थे। शंक्‍ख, भेरी तथा नाना प्रकार के वाद्यों की ध्‍वनि से वह अनुपम नगर बड़ी शोभा पा रहा था। उस समय कौतूहलवश सारा नगर देदीप्‍यमान सा हो उठा। पुरुषसिंह पाण्‍डव प्रजाजनों के शोक और दु:ख का निवारण करने वाले थे; अत: वहाँ उनका प्रिय करने की इच्‍छा वाले पुरवासियों द्वारा कही हुई भिन्‍न-भि‍न्‍न प्रकार की हृदय-स्‍पर्शिनी बातें सुनायी पड़ीं। (पुरवासी कह रहे थे-) ‘ये ही वे नरश्रेष्‍ठ धर्मज्ञ युधिष्ठिर पुन: यहाँ पधार रहे हैं, जो धर्मपूर्वक अपने पुत्रों की भाँति हम लोगों की रक्षा करते थे। इनके आने से नि:संदेह ऐसा जान पड़ता है, आज प्रजाजनों के प्रिय महाराज पाण्‍डु ही मानो हमारा प्रिय करने के लिये वन से चले आये हों। तात! कुन्‍ती के वीर पुत्र पुन: इस नगर में चले आये तो आज हम सब लोगों का कौन-सा परम प्रिय कार्य नहीं सम्‍पन्‍न हो गया।[2] यदि हमने दान और होम किया है, यदि हमारी तपस्‍या शेष है तो उन सबके पुण्‍य से ये पाण्‍डव सौ वर्ष तक इसी नगर में निवास करें ’। इतने में ही पाण्‍डवों ने धृतराष्‍ट्र, महात्‍मा भीष्‍म तथा अन्‍य वन्‍दनीय पुरुषों के पास जाकर उन सबके चरणों में प्रणाम किया। फिर समस्‍त नगरवासियों से कुशल प्रश्‍न करके वे राजा धृतराष्‍ट्र की आज्ञा से राज महलों में गये। उस समय दुर्योधन की रानी ने, जो काशिराज की पुत्री थी, धृतराष्‍ट्र पुत्रों की अन्‍य बंधुओं के साथ आकर द्वितीय लक्ष्‍मी के समान सुन्‍दरी पाञ्चाल राजकुमारी द्रौपदी की अगवानी की। द्रौपदी सर्वथा पूजा के योग्‍य थी। उसे देखकर ऐसा प्रतीत होता था मानो साक्षात् शची देवी ने पर्दापण किया हो।[3]

पाण्डवों का द्रौपदी सहित महल में प्रवेश करना

दुर्योधन पत्‍नी ने उसका भलीभाँति सत्‍कार किया। वहाँ पहुँचकर कुन्‍ती ने अपनी बहूरानी द्रौपदी के साथ गान्‍धारी को प्रणाम किया। गान्‍धारीं ने आशीर्वाद देकर द्रौपदी को हृदय से लगा लिया। कमल सद्दश नेत्रोंवाली कृष्‍णा को हृदय से लगाकर गान्‍धारी सोचने लगी कि यह पाञ्चाली तो मेरे पुत्रों की मृत्‍यु ही है। यह सोचकर सुबल पुत्री गान्‍धारी ने युक्ति से विदुर को बुलाकर कहा- फिर गान्‍धारी ने कहा- विदुर! यदि तुम्‍हें जंचे तो राजकुमारी कुन्‍ती को पुत्रवधू सहित शीघ्र ही पाण्‍डु के महल में ले जाओ और वहीं इनका सारा सामान भी पहुँचा दो। उत्‍तम करण, मुहूर्त और नक्षत्र सहित शुभ तिथि को उस महल में इन्‍हें प्रवेश करना चाहिये, जिससे कुन्‍ती देवी अपने घर में पुत्रों के साथ सुखपूर्वक रह सकें। वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय! ‘बहुत अच्‍छा’ कहकर उसी समय विदुर ने वैसी ही व्‍यवस्‍था की। सभी बन्‍धु-बान्‍धवों ने पाण्‍डवों का उसी समय अत्‍यन्‍त आदर-सत्‍कार किया। प्रमुख नागरिकों तथा सेठों ने भी पाण्‍डवों का पूजन किया। भीष्‍म, द्रोण, कर्ण तथा पुत्र सहित बाह्रीक ने धृतराष्‍ट्र के आदेश से पाण्‍डवों का आतिथ्‍य-सत्‍कार किया। इस प्रकार हस्तिनापुर में विहार करने वाले महात्‍मा पाण्‍डवों के सभी कार्यों में विदुरजी ही नेता थे। उन्‍हें इसके लिये राजा की ओर से आदेश प्राप्‍त हुआ था।[3]

धृतराष्ट्र द्वारा पाण्डवों को आधा राज्य देना

कुछ काल तक विश्राम कर लेने पर उन महाबली महात्‍मा पाण्‍डवों को राजा धृतराष्‍ट्र तथा भीष्‍मजी ने बुलाया। धृतराष्‍ट्र बोले- कुन्‍ती नन्‍दन युधिष्ठिर! मैं जो कुछ कह रहा हूं, उसे अपने भाइयों सहित ध्‍यान देकर सुनो। कुन्‍तीनन्‍दन! मेरी आज्ञा से पाण्‍डु ने इस राज्‍य को बढ़ाया और पाण्‍डु ने ही जगत् का पालन किया। मेरे भाई पाण्‍डु बड़े बलवान् थे। राजन्! वे मेरे कहने से सदा ही दुष्‍कर कार्य किया करते थे। कुन्‍तीकुमार! तुम भी यथासम्‍भव शीघ्र मेरी आज्ञा का पालन करो, विलम्‍ब न करो। मेरे दुरात्‍मा पुत्र दर्प और अंहकार से भरे हुए हैं। युधिष्ठिर! वे सदा मेरी आज्ञा का पालन नहीं करेंगे। अपने स्‍वार्थ साधन में लगे हुए उन बलाभिमानी दुरात्‍माओं के साथ तुम्‍हारा फिर कोई फिर कोई झगड़ा खड़ा न हो जाय, इसलिये तुम खाण्‍ड़वप्रस्‍थ में निवास करो। वहाँ रहते समय कोई तुम्‍हें बाधा नहीं दे सकता; क्‍योंकि जैसे वज्रधारी इन्‍द्र देवताओं की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार कुन्‍तीनन्‍दन अर्जुन वहाँ तुम लोगों की भलीभाँति रक्षा करेंगे। तुम आधा राज्‍य लेकर खाण्‍डप्रस्‍थ में चलकर रहो।[3]

धृतराष्ट्र द्वारा युधिष्ठिर का राज्याभिषेक

(फि‍र) धृतराष्‍ट्र ने (विदुर से) कहा- विदुर! तुम राज्‍याभिषेक की सामग्री लाओ, इसमें वि‍लम्‍ब नहीं होना चाहिये। मैं आज ही कुरुकुल नन्‍दन युधिष्ठिर का अभिषेक करुंगा। वेदवेत्‍ता विद्वानों ने श्रेष्‍ठ ब्राह्मण, नगर के सभी प्रमुख व्‍यापारी, प्रजा वर्ग के लोग और विशेषत: बन्‍धु-बान्‍धव बुलाये जाय। तात! पुण्‍याहवाचन कराओ और ब्राह्मणों को दक्षिणा के साथ एक सहस्‍त्र गौएं तथा मुख्‍य-मुख्‍य ग्राम दो। विदुर! दो भुजबंद, एक सुन्‍दर मुकुट तथा हाथ के आभूषण मंगाओ। मोती की कई मालाएं, हार, पदक, कुण्‍डल, करधनी, कटिसुत्र तथा उदरबन्‍ध भी ले आओ। एक हजार आठ हाथी मंगाओ, जिन पर ब्राह्मण सवार हो। पुरोहितों के साथ जाकर वे हाथी शीघ्र गंगाजी का जल ले आयें। युधिष्ठिर अभिषेक के जल से भीगे हो, समस्‍त आभूषणों से उन्‍हें विभूषित किया गया हो, वे राजा की सवारी के योग्‍य गजराज पर बैठे हों, उनपर दिव्‍य चंवर ढुल रहे हों और उनके मस्‍तक के ऊपर सुवर्ण और मणियों से विचित्रशोभा धारण करने वाला श्‍वेत छत्र सुशोभित हो, ब्राह्मणों द्वारा को हुई जय-जयकार के साथ बहुत-से नरेश उनकी स्‍तुती करते हो। इस प्रकार कुन्‍ती के ज्‍येष्‍ठ पुत्र अजमीढ कुल तिलक युधिष्ठिर का प्रसन्‍न मन से दर्शन करके प्रसन्‍न हुए पुरवासी जन इनकी भूरी-भूरी प्रशंसा करें। राजा पाण्‍डु ने मुझे ही अपना राज्‍य देकर जो उपकार किया था, उसका बदला इसी से पूर्ण होगा कि युधिष्ठिर का राज्‍याभिषेक कर दिया जाय; इसमें संशय नहीं है।[4]

महापुरुषों द्वारा युधिष्ठिर को आर्शिवाद

वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय! यह सुनकर भीष्‍म, द्रोण, कृप तथा विदुर ने कहा- ‘बहुत अच्‍छा! बहुत अच्‍छा! ’ (तब) भगवान् श्रीकृष्‍ण बोले- महाराज! आपका यह विचार सर्वथा उत्‍तम तथा कौरवों का यश बढ़ाने वाला है। राजेन्‍द्र! आपने जैसा कहा है, उसे आज ही जितना शीघ्र सम्‍भव हो सके, पूर्ण कर डालिये। वैशम्‍पायनजी कहते हैं- इतना कहकर भगवान् श्रीकृष्‍ण ने उन्‍हें जल्‍दी करने की प्रेरणा दी। विदुरजी ने धृतराष्‍ट्र के कथनानुसार सब कार्य पूर्ण कर दिया। उसी समय राजन्, वहाँ महर्षि कृष्‍णद्वैपायन पधारे। समस्‍त कौरवों ने अपने सुहृदयों के साथ आकर उनकी पूजा की। सब वेदों के पारंगत विद्वान ब्राह्मणों तथा मूर्धाभिषेक्‍त नरेशों के साथ मिलकर भगवान् श्रीकृष्‍ण की सम्‍मति के अनुसार व्‍यासजी ने विधिपूर्वक अभिषेक कार्य सम्‍पन्‍न किया। कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, भीष्‍म, धौम्‍य, व्‍यास, श्रीकृष्‍ण, बाल्हिक और सोमदत्‍त ने चारों वेद के विद्वानों को आगे रखकर भद्रपीठ पर संयमपूर्वक बैठे हुए युधिष्ठिर का उस समय अभिषेक किया और सबने यह आशीर्वाद दिया कि ‘राजन्! तुम सारी पृथ्‍वी को जीतकर सम्‍पूर्ण नरेशों को अपने अधीन करके प्रचुर दक्षिणा से युक्‍त राजसूर्य आदि यज्ञ याग पूर्ण करने के पश्‍चात अवभृथ स्‍नान करके बन्‍धु-बान्‍धवों के साथ सुखी रहो।’ जनमेजय! यों कहकर उन सबने अपने आशीर्वादों- द्वारा युधिष्ठिर का सम्‍मान किया। समस्‍त आभूषणों से विभूषित, मूर्धाभिषिक्‍त राजा युधिष्ठिर ने अक्षय धन का दान किया। उस समय सब लोगों ने जय जयकार पूर्वक उनकी स्‍तुति‍ की। समस्‍त मूर्धाभिषिक्‍त राजाओं ने भी कुरुनन्‍दन युधिष्ठिर का पूजन किया। फिर वे राजोचित गजराज पर आरुढ़ हों श्‍वेत छत्र से सुशोभित हुए। उनके पीछे-पीछे बहुत-से मनुष्‍य चल रहे थे। उस समय देवताओं से घिरे हुए इन्‍द्र की भाँति उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। समस्‍त हस्तिनापुर नगर की परिक्रमा करके राजा ने पुन: राजधानी में प्रवेश किया। उस समय नागरिकों ने उनका विशेष समादर किया। बन्‍धु-बान्‍धवों ने भी मूर्धाभिषि‍क्‍त राजा युधिष्ठिर का सादर अभिनन्‍दन किया।[4]

धृतराष्ट्र की आज्ञा से पाण्डवों का खाण्डवप्रस्थ जाना

यह सब देखकर वे गान्‍धारी के दुर्योधन आदि सभी पुत्र अपने भाइयों के साथ शोकातुर हो रहे थे। अपने पुत्रों को शोक हुआ जानकर धृतराष्‍ट्र ने भगवान् श्रीकृष्‍ण तथा कौरवों के समक्ष राजा युधिष्ठिर से (इस प्रकार) कहा। धृतराष्‍ट्र बोले- कुरुनन्‍दन! तुमने यह राज्‍याभिषेक प्राप्‍त किया है, जो अजितात्‍मा पुरुषों के लिये दुर्लभ है। राजन्! तुम राज्‍य पाकर कृतार्थ हो गये। अत: आज ही खाण्‍डवप्रस्‍थ चले जाओ। नृपश्रेष्‍ठ! पुरुरवा, आयु, नहुष तथा ययाति खाण्‍डवप्रस्‍थ में ही निवास करते थे। महाबाहो! वहीं समस्‍त पौरव नरेशों की राजधानी थी। आगे चलकर मुनियों ने बुधपुत्र के लोभ से खाण्‍डवप्रस्‍थ को नष्‍ट कर दिया था। इसलिये तुम खाण्‍डवप्रस्‍थ नगर को पुन: बसाओ और अपने राष्‍ट्र की वृद्धि करो। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्‍य तथा शूद्र सबने तुम्‍हारे साथ वहाँ जाने का निश्‍चय किया है। तुममें भक्ति रखने के कारण दूसरे लोग भी उस सुन्‍दर नगर का आश्रय लेंगे। निष्‍पाप कुन्‍तीकुमार! वह नगर तथा राष्‍ट्र समृद्धिशाली और धन-धान्‍य से सम्‍पन्‍न है। अत: तुम भाइयों सहित वहीं जाओ। वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय! राजा धृतराष्‍ट्र की बात मानकर पाण्‍डवों ने उन्‍हें प्रणाम किया और आधा राज्‍य पाकर वे खाण्‍डवप्रस्‍थ की ओर चल दिये, जो भयंकर वन के रुप में था। धीरे-धीरे वे खाण्‍डवप्रस्‍थ में जा पहुँचे।[4]




टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 महाभारत आदि पर्व अध्याय 206 श्लोक 1-11
  2. 2.0 2.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 206 श्लोक 12-19
  3. 3.0 3.1 3.2 महाभारत आदि पर्व अध्याय 206 श्लोक 20-25
  4. 4.0 4.1 4.2 महाभारत आदि पर्व अध्याय 206 श्लोक 26-27

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मरिचि आदि महर्षियों तथा अदिति आदि दक्ष कन्याओं के वंश का विवरण | महर्षियों तथा कश्यप-पत्नियों की संतान परंपरा का वर्णन | देवता और दैत्यों के अंशावतारों का दिग्दर्शन | दुष्यंत की राज्य-शासन क्षमता का वर्णन | दुष्यंत का शिकार के लिए वन में जाना | दुष्यंत का हिंसक वन-जन्तुओं का वध करना | तपोवन और कण्व के आश्रम का वर्णन | दुष्यंत का कण्व के आश्रम में प्रवेश | दुष्यंत-शकुन्तला वार्तालाप | शकुन्तला द्वारा अपने जन्म का कारण बताना | विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के लिए इंद्र द्वारा मेनका को भेजना | मेनका-विश्वामित्र का मिलन | कण्व द्वारा शकुन्तला का पालन-पोषण | शकुन्तला और दुष्यंत का गन्धर्व विवाह | कण्व द्वारा शकुन्तला विवाह का अनुमोदन | शकुन्तला को अद्भुत शक्तिशाली पुत्र की प्राप्ति | पुत्र सहित शकुन्तला का दुष्यंत के पास जाना | आकाशवाणी द्वारा शकुन्तला की शुद्धि का समर्थन | भरत का राज्याभिषेक | दक्ष, वैवस्वत मनु तथा उनके पुत्रों की उत्पत्ति | पुरुरवा, नहुष और ययाति के चरित्रों का वर्णन | कच का शुक्राचार्य-देवयानी की सेवा में सलंग्न होना | देवयानी का कच से पाणिग्रहण के लिए अनुरोध | देवयानी-शर्मिष्ठा का कलह | शर्मिष्ठा द्वारा कुएँ में गिरायी गयी देवयानी को ययाति का निकालना | देवयानी शुक्राचार्य से वार्तालाप | शुक्राचार्य द्वारा देवयानी को समझाना | शुक्राचार्य का वृषपर्वा को फटकारना | शर्मिष्ठा का दासी बनकर शुक्राचार्य-देवयानी को संतुष्ट करना | सखियों सहित देवयानी और शर्मिष्ठा का वन-विहार | ययाति और देवयानी का विवाह | ययाति से देवयानी को पुत्र प्राप्ति | ययाति-शर्मिष्ठा का एकान्त मिलन | देवयानी-शर्मिष्ठा संवाद | शुक्राचार्य का ययाति को शाप देना | ययाति का अपने पुत्रों से आग्रह | ययाति का अपने पुत्रों को शाप देना | ययाति का अपने पुत्र पुरु की युवावस्था लेना | ययाति का विषय सेवन एवं वैराग्य | ययाति द्वारा पुरु का राज्याभिषेक करके वन में जाना | ययाति की तपस्या | ययाति द्वारा पुरु के उपदेश की चर्चा करना | ययाति का स्वर्ग से पतन | ययाति और अष्टक का संवाद | अष्टक और ययाति का संवाद | ययाति और अष्टक का आश्रम-धर्म संबंधी संवाद | ययाति द्वारा दूसरों के पुण्यदान को अस्वीकार करना | ययाति का वसुमान और शिबि के प्रतिग्रह को अस्वीकार करना | ययाति का अष्टक के साथ स्वर्ग में जाना | पुरुवंश का वर्णन | पुरुवंश, भरतवंश एवं पाण्डुवंश की परम्परा का वर्णन | महाभिष को ब्रह्माजी का शाप | शापग्रस्त वसुओं के साथ गंगा की बातचीत | प्रतीक का गंगा को पुत्र वधू के रूप में स्वीकार करना | शान्तनु का जन्म एवं राज्याभिषेक | शान्तनु और गंगा का शर्तों के साथ विवाह | वसुओं का जन्म एवं शाप से उद्धार | भीष्म का जन्म | वसिष्ठ द्वारा वसुओं को शाप प्राप्त होने की कथा | शान्तनु के रूप, गुण और सदाचार की प्रशंसा | गंगाजी को सुशिक्षित पुत्र की प्राप्ति | देवव्रत की भीष्म प्रतिज्ञा | सत्यवती के गर्भ से चित्रांगद, विचित्रवीर्य की उत्पत्ति | शान्तनु और चित्रांगद का निधन | विचित्रवीर्य का राज्याभिषेक | भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का हरण | भीष्म द्वारा सब राजाओं एवं शाल्व की पराजय | अम्बिका, अम्बालिका के साथ विचित्रवीर्य का विवाह | विचित्रवीर्य का निधन | सत्यवती का भीष्म से राज्य-ग्रहण का आग्रह | भीष्म की सम्मति से सत्यवती द्वारा व्यास का आवाहन | सत्यवती की आज्ञा से व्यास को अम्बिका, अम्बालिका के गर्भ में संतानोत्पादन की स्वीकृति | व्यास द्वारा विचित्रवीर्य के क्षेत्र से धृतराष्ट्र, पाण्डु, विदुर की उत्पत्ति | महर्षि माण्डव्य का शूली पर चढ़ाया जाना | माण्डव्य का धर्मराज को शाप देना | कुरुदेश की सर्वागीण उन्नति का दिग्दर्शन | धृतराष्ट्र का विवाह | कुन्ती को दुर्वासा से मंत्र की प्राप्ति | कुन्ती द्वारा सूर्यदेव का आवाहन एवं कर्ण का जन्म | कर्ण द्वारा इन्द्र को कवच-कुण्डलों का दान | कुन्ती द्वारा स्वयंवर में पाण्डु का वरण एवं विवाह | माद्री के साथ पाण्डु का विवाह | पाण्डु का पत्नियों सहित वन में निवास | विदुर का विवाह | धृतराष्ट्र के गांधारी से सौ पुत्र और एक पुत्री की उत्पत्ति | धृतराष्ट्र को सेवा करने वाली वैश्य जातीय युवती से युयुत्सु की प्राप्ति | दु:शला के जन्म की कथा | धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों की नामावली | पाण्डु द्वारा मृगरूप धारी मुनि का वध | पाण्डु का अनुताप, संन्यास लेने का निश्चय | पाण्डु का पत्नियों के अनुरोध से वानप्रस्थ-आश्रम में प्रवेश | पाण्डु का कुन्ती को पुत्र-प्राप्ति का आदेश | कुन्ती का पाण्डु को भद्रा द्वारा पुत्र-प्राप्ति का कथन | पाण्डु की आज्ञा से कुन्ती का पुत्रोत्पत्ति के लिए धर्मदेवता का आवाहन | युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन की उत्पत्ति | नकुल और सहदेव की उत्पत्ति | पाण्डु पुत्रों का नामकरण संस्कार | पाण्डु की मृत्यु और माद्री का चितारोहण | ऋषियों का कुन्ती और पाण्डवों को लेकर हस्तिनापुर जाना | पाण्डु और माद्री की अस्थियों का दाह-संस्कार | पाण्डवों और धृतराष्ट्र पुत्रों की बालक्रीडाएँ | दुर्योधन का भीम को विष खिलाना | भीम का नागलोक में पहुँच आठ कुण्डों का दिव्य रस पान करना | भीम के न आने से कुन्ती की चिन्ता | नागलोक से भीम का आगमन | कृपाचार्य, द्रोण और अश्वत्थामा की उत्पत्ति | द्रोण को परशुराम से अस्त्र-शस्त्र की प्राप्ति | द्रोण का द्रुपद से तिरस्कृत हो हस्तिनापुर में आना | द्रोण की राजकुमारों से भेंट | भीष्म का द्रोण को सम्मानपूर्वक रखना | द्रोणाचार्य द्वारा राजकुमारों की शिक्षा | एकलव्य की गुरु-भक्ति | द्रोणाचार्य द्वारा शिष्यों की परीक्षा | अर्जुन द्वारा लक्ष्यवेध | द्रोण का ग्राह से छुटकारा | अर्जुन को ब्रह्मशिर अस्त्र की प्राप्ति | राजकुमारों का रंगभूमि में अस्त्र-कौशल दिखाना | भीम, दुर्योधन और अर्जुन द्वारा अस्त्र-कौशल का प्रदर्शन | कर्ण का रंगभूमि में प्रवेश तथा राज्याभिषेक | भीम द्वारा कर्ण का तिरस्कार और दुर्योधन द्वारा सम्मान | द्रोण का शिष्यों द्वारा द्रुपद पर आक्रमण | अर्जुन का द्रुपद को बंदी बनाकर लाना | द्रोण द्वारा द्रुपद को आधा राज्य देकर मुक्त करना | युधिष्ठिर का युवराज पद पर अभिषेक | पाण्डवों के शौर्य, कीर्ति और बल के विस्तार से धृतराष्ट्र को चिन्ता | कणिक का धृतराष्ट्र को कूटनीति का उपदेश
जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव | धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा | दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना | पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश | वारणावत में पाण्डवों का स्वागत | लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत | विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण | लाक्षागृह का दाह | विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना | हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश | कुन्ती के लिए भीम का जल लाना | माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना | भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध | हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना | भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध | युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना | हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना | भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन | घटोत्कच की उत्पत्ति | पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
ब्राह्मण परिवार का कष्ट दूर करने हेतु कुन्ती-भीम की बातचीत | ब्राह्मण के चिन्तापूर्ण उद्गार | ब्राह्मणी का पति से जीवित रहने के लिए अनुरोध करना | ब्राह्मण कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन | कुन्ती का ब्राह्मण कन्या के पास जाना | कुन्ती का ब्राह्मण का दुख सुनना | कुन्ती और ब्राह्मण की बातचीत | भीम को वकासुर के पास भेजने का प्रस्ताव | भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना | भीम और वकासुर का युद्ध | वकासुर वध से भयभीत राक्षसों का पलायन
चैत्ररथ पर्व
पाण्डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना | द्रोण का द्रुपद द्वारा अपमानित होने का वृत्तांत | द्रुपद के यज्ञ से धृष्टद्युम्न और द्रौपदी का जन्म | कुन्ती का पांचाल देश में जाना | व्यासजी का पाण्डवों से द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनाना | पाण्डवों की पांचाल यात्रा | अर्जुन द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं दोनों की मित्रता | राजा संवरण का सूर्य कन्या तपती पर मोहित होना | तपती और संवरण की बातचीत | वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति | गन्धर्व का ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिए आग्रह करना | वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के आगे विश्वामित्र का पराभव | शक्ति के शाप से कल्माषपाद का राक्षस होना | कल्माषपाद का शाप से उद्धार | वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति | शक्ति पुत्र पराशर का जन्म | पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण | और्व और पितरों की बातचीत | पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति | कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप | पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत | ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना | स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा | धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना | राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना | अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना | भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा | कृष्ण-बलराम का वार्तालाप | अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय | द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना | कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत | पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह | श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट | धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना | द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना | पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान | द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन | द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार | व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना | द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना | द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह | कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व
पाण्डवों के विवाह से दुर्योधन को चिन्ता | धृतराष्ट्र का पाण्डवों के प्रति प्रेम का दिखावा | धृतराष्ट्र-दुर्योधन की बातचीत, शत्रुओं को वश में करने के उपाय | पाण्डवों को पराक्रम से दबाने के लिए कर्ण की सम्मति | भीष्म की दुर्योधन से पाण्डवों को आधा राज्य देने की सलाह | द्रोणाचार्य की पाण्डवों को उपहार भेजने की सम्मति | विदुर की सम्मति, द्रोण-भीष्म के वचनों का समर्थन | धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर का द्रुपद के पास जाना | पाण्डवों का हस्तिनापुर आना | इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण | श्रीकृष्ण-बलरामजी का द्वारका प्रस्थान | पाण्डवों के यहाँ नारदजी का आगमन | नारद द्वारा सुन्द-उपसुन्द कथा का प्रस्ताव | सुन्द-उपसुन्द की तपस्या | सुन्द-उपसुन्द द्वारा त्रिलोक विजय | तिलोत्तमा की उत्पत्ति एवं सुन्दोपसुन्द को मोहित करने हेतु प्रस्थान | तिलोत्तमा की वजह से सुन्द-उपसुन्द में लड़ाई | तिलोत्तमा को ब्रह्माजी द्वारा वरदान | पाण्डवों का द्रौपदी के विषय में नियम-निर्धारण
अर्जुन वनवास पर्व
अर्जुन द्वारा गोधन की रक्षा के लिए नियम-भंग | अर्जुन का गंगाद्वार में रुकना एवं उलूपी से मिलन | अर्जुन का मणिपूर में चित्रांगदा से पाणिग्रहण | अर्जुन द्वारा वर्गा अप्सरा का उद्धार | वर्गा की आत्मकथा | अर्जुन का प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण से मिलना
सुभद्रा हरण पर्व
अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना | यादवों की अर्जुन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी
हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह | अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना | द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
खाण्डव दाह पर्व
युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता | अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना | राजा श्वेतकि की कथा | अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना | अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना | खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा | देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
मय दर्शन पर्व
खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा | मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति | जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना | जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद | शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना | मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना | इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान

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