शकुन्तला राजा दुष्यन्त के कहने पर उनके साथ गान्धर्व विवाह कर लेती है , शकुन्तला से विवाह करने के बाद वे शकुन्तला को वहीं आश्रम में छोड़ कर अपने राज्य लौट जाते है। उनके जाने के बाद शकुन्तला अपने और दुष्यन्त के विवाह की बात अपने पिता कण्व को बताती है। जिसका वर्णन महाभारत आदिपर्व के ‘सम्भवपर्व’ के अंतर्गत अध्याय 73 के अनुसार इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
शकुन्तला का कण्व को विवाह के बारे में बताना
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! इस प्रकार शकुन्तला से प्रतिज्ञा करके नरेश्वर राजा दुष्यन्त आश्रम से चल दिये। उनके मन में महर्षि कण्व की ओर से बड़ी चिन्ता थी कि तपस्वी भगवान कण्व यह सब सुनकर न जाने क्या कर बैठेंगे?
इस तरह चिन्ता करते हुए ही राजा ने अपने नगर में प्रवेश किया। उनके गये दो ही घड़ी बीती थी कि महर्षि कण्व भी आश्रम पर आ गये; परंतु शकुन्तला लज्जावश पहले के सामन पिता के समीप नहीं गयी। तत्पश्चात् वह डरती हुई ब्रह्मर्षि के निकट धीरे-धीरे गयी। फिर उसने उनके लिये आसन लेकर विछाया। शकुन्तला इतनी लज्जित हो गयी थी कि महर्षि से कोई बात तक न कर सकी। भरतश्रेष्ठ! वह अपने धर्म से गिर जाने के कारण भयभीत हो रही थी। जो कुछ समय पहले तक स्वाधीन ब्रह्मचारिणी थी, वही उस समय अपना दोष देखने के कारण घवरा गयी थी। शकुन्तला को लज्जा में डूवी हुई देख महर्षि कण्व ने उससे कहा। कण्व बोले - बेटी! तू सलज रहकर भी दीर्घायु होगी अब पहले जैसी चपल न रह सकेगी। शुभे! सारी बातें स्पष्ट बता भय न कर। वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन्! पवित्र मुस्कान वाली वह सुन्दरी वह सुन्दरी अत्यन्त सदाचारिणी थी; तो भी अपने व्यवहार से लज्जा का अनुभव करती हुई महर्षि कण्व से बड़ी कठिनाई के साथ गद्गगद कण्ठ होकर बोली। शकुन्तला बोली- तात! इलिल कुमार महाराज दुष्यन्त इस वन में आये थे। दैवयोग से इस आश्रम पर भी उनका आगमन हुआ और मैंने उन्हें अपना पति स्वीकार कर लिया। पिताजी! आप उन पर प्रसन्न हों। वे महायशस्वी नरेश अब मेरे स्वामी हैं। इसके बाद का सारा वृतान्त आप दिव्य ज्ञान दृष्टि से देख सकते हैं। क्षत्रिय कुल को अभयदान देकर उन पर कृपा दृष्टि करें। महातपस्वी भगवान् कण्व दिव्यज्ञान से सम्पन्न थे। वे दिव्य दृष्टि से देखकर शकुन्तलाक की तात्कालिक अवस्था को जान गये; अत: प्रसन्न होकर बोले।
कण्व द्वारा विवाह अनुमोदन
‘भद्रे! आज तुमने मेरी अवहेलना करके जो एकान्त में किसी पुरुष के साथ सम्बन्ध स्थापित किया है, वह तुम्हारे धर्म का नाशक नहीं है। ‘क्षत्रिय के लिये गान्धर्व विवाह श्रेष्ठ कहा गया है। स्त्री और पुरुष दोनों एक दूसरे को चाहते हों, उस दशा में उन दोनों का एकान्त में जो मन्त्रहीन सम्बन्ध स्थापित होता है, उसे गान्धर्व विवाह कहा गया है। ‘शकुन्तले! महामना दुष्यन्त धर्मात्मा और श्रेष्ठ पुरुष हैं। वे तुम्हें चाहते थे। तुमने योग्य पति के साथ सम्बन्ध स्थापित किया है; इसलिये लोक में तुम्हारे गर्भ से एक महाबली और महात्मापुत्र उत्पन्न होगा, जो समुद्र से घिरी हुई इस समूची पृथ्वी का उपभोग करेगा। ‘शत्रुओं पर आक्रमण करने वाले उन महामना चक्रवर्ती नरेश की सेना सदा अप्रतिहत होगी। उसकी गति को कोई रोक नहीं सकेगा’। तदनन्तर शकुन्तला ने उनके लाये हुए फल के भार को लेकर यथास्थान रख दिया। फिर उनके दोनों पैर धाये तथा जब वे भोजन और विश्राम कर चुके, तब वह मुनि से इस प्रकार बोली। शकुन्तला ने कहा- भगवन्! मैंने पुरुषों में श्रेष्ठ राजा दुष्यन्त का पति रुप में वरण किया है। अत: मन्त्रियों सहित उन नरेश पर आपको कृपा करनी चाहिये। कण्व बोले- उत्तम वर्ण वाली पुत्री! मैं तुम्हारे भले के लिये राजा दुष्यन्त पर भी प्रसन्न ही हूँ। शचिस्मिते! अब तक तेरे बहुत-से ॠतु व्यर्थ बीत गये हैं। इस बार यह सार्थक हुआ है। अनघे! तुम्हें पाप नहीं लगेगा। शुभे! तुम्हारी जो इच्छा हो, वह वर मुझसे मांग लो। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! तब शकुन्तला ने दुष्यन्त की हित की इच्छा से यह वर मांगा कि पुरुवंशी नरेश सदा धर्म में स्थिर रहें और वे कभी राज्यसे भ्रष्ट न हों। उस समय धर्मात्माओं में श्रेष्ठ कण्व ने उससे कहा- ‘एवमस्तु’ (ऐसा ही हो)। यह कह कर उन्होंने मूर्तिमति लक्ष्मी–सी पुत्री शकुन्तला का दोनों हाथों से स्पर्श किया और कहा। कण्व बोले- बेटी! आज से तू महात्मा राजा दुष्यन्त की महारानी है। अत: पतिव्रता स्त्रियों का जो बर्ताव तथा सदाचार है, उसका निरन्तर पालन कर।[2]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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