महाभारत आदि पर्व अध्याय 206 श्लोक 26-27

षडधिकद्विशततम (206) अध्‍याय: आदि पर्व (विदुरागमन-राज्‍यलम्‍भ पर्व )

Prev.png

महाभारत: आदि पर्व: षडधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 26-27 का हिन्दी अनुवाद


(फि‍र) धृतराष्ट्र ने (विदुर से) कहा- विदुर! तुम राज्‍याभिषेक की सामग्री लाओ, इसमें वि‍लम्‍ब नहीं होना चाहिये। मैं आज ही कुरुकुलनन्‍दन युधिष्ठिर का अभिषेक करुंगा। वेदवेत्ता विद्वानों ने श्रेष्‍ठ ब्राह्मण, नगर के सभी प्रमुख व्‍यापारी, प्रजावर्ग के लोग और विशेषत: बन्‍धु-बान्‍धव बुलाये जाय। तात! पुण्‍याहवाचन कराओ और ब्राह्मणों को दक्षिणा के साथ एक सहस्र गौएं तथा मुख्‍य-मुख्‍य ग्राम दो। विदुर! दो भुजबंद, एक सुन्‍दर मुकुट तथा हाथ के आभूषण मंगाओ। मोती की कई मालाएं, हार, पदक, कुण्‍डल, करधनी, कटिसूत्र तथा उदरबन्‍ध भी ले आओ। एक हजार आठ हाथी मंगाओ, जिन पर ब्राह्मण सवार हो। पुरोहितों के साथ जाकर वे हाथी शीघ्र गंगा जी का जल ले आयें। युधिष्ठिर अभिषेक के जल से भीगे हो, समस्‍त आभूषणों से उन्‍हें विभूषित किया गया हो, वे राजा की सवारी के योग्‍य गजराज पर बैठे हों, उन पर दिव्‍य चंवर ढुल रहे हों और उनके मस्‍तक के ऊपर सुवर्ण और मणियों से विचित्रशोभा धारण करने वाला श्‍वेत छत्र सुशोभित हो, ब्राह्मणों द्वारा को हुई जय-जयकार के साथ बहुत-से नरेश उनकी स्‍तुती करते हो। इस प्रकार कुन्‍ती के ज्‍येष्‍ठ पुत्र अजमीढ़कुलतिलक युधिष्ठिर का प्रसन्‍न मन से दर्शन करके प्रसन्‍न हुए पुरवासी जन इनकी भूरी-भूरी प्रशंसा करें। राजा पाण्‍डु ने मुझे ही अपना राज्‍य देकर जो उपकार किया था, उसका बदला इसी से पूर्ण होगा कि युधिष्ठिर का राज्‍याभिषेक कर दिया जाय; इसमें संशय नहीं है।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! यह सुनकर भीष्म, द्रोण, कृप तथा विदुर ने कहा- ‘बहुत अच्‍छा! बहुत अच्‍छा! ’ (तब) भगवान् श्रीकृष्‍ण बोले- महाराज! आपका यह विचार सर्वथा उत्‍तम तथा कौरवों का यश बढ़ाने वाला है। राजेन्‍द्र! आपने जैसा कहा है, उसे आज ही जितना शीघ्र सम्‍भव हो सके, पूर्ण कर डालिये। वैशम्‍पायन जी कहते हैं- इतना कहकर भगवान् श्रीकृष्‍ण ने उन्‍हें जल्‍दी करने की प्रेरणा दी। विदुर जी ने धृतराष्ट्र के कथनानुसार सब कार्य पूर्ण कर दिया। उसी समय राजन्, वहाँ महर्षि कृष्‍णद्वैपायन पधारे। समस्‍त कौरवों ने अपने सुहृदयों के साथ आकर उनकी पूजा की। सब वेदों के पारंगत विद्वान ब्राह्मणों तथा मूर्धाभिषेक्‍त नरेशों के साथ मिलकर भगवान् श्रीकृष्‍ण की सम्‍मति के अनुसार व्‍यास जी ने विधिपूर्वक अभिषेक कार्य सम्‍पन्‍न किया। कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, भीष्‍म, धौम्‍य, व्‍यास, श्रीकृष्‍ण, बाह्लीक और सोमदत्त ने चारों वेद के विद्वानों को आगे रखकर भद्रपीठ पर संयमपूर्वक बैठे हुए युधिष्ठिर का उस समय अभिषेक किया और सबने यह आशीर्वाद दिया कि ‘राजन्! तुम सारी पृथ्‍वी को जीतकर सम्‍पूर्ण नरेशों को अपने अधीन करके प्रचुर दक्षिणा से युक्‍त राजसूर्य आदि यज्ञ याग पूर्ण करने के पश्‍चात अवभृथ स्‍नान करके बन्‍धु-बान्‍धवों के साथ सुखी रहो।’

जनमेजय! यों कहकर उन सबने अपने आशीर्वादों- द्वारा युधिष्ठिर का सम्‍मान किया। समस्‍त आभूषणों से विभूषित, मूर्धाभिषिक्‍त राजा युधिष्ठिर ने अक्षय धन का दान किया। उस समय सब लोगों ने जय-जयकारपूर्वक उनकी स्‍तुति‍ की। समस्‍त मूर्धाभिषिक्‍त राजाओं ने भी कुरुनन्‍दन युधिष्ठिर का पूजन किया। फिर वे राजोचित गजराज पर आरुढ़ हो श्‍वेत छत्र से सुशोभित हुए। उनके पीछे-पीछे बहुत-से मनुष्‍य चल रहे थे। उस समय देवताओं से घिरे हुए इन्‍द्र की भाँति उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। समस्‍त हस्तिनापुर नगर की परिक्रमा करके राजा ने पुन: राजधानी में प्रवेश किया। उस समय नागरिकों ने उनका विशेष समादर किया। बन्‍धु-बान्‍धवों ने भी मूर्धाभिषि‍क्‍त राजा युधिष्ठिर का सादर अभिनन्‍दन किया। यह सब देखकर वे गान्‍धारी के दुर्योधन आदि सभी पुत्र अपने भाइयों के साथ शोकातुर हो रहे थे। अपने पुत्रों को शोक हुआ जानकर धृतराष्ट्र ने भगवान् श्रीकृष्‍ण तथा कौरवों के समक्ष राजा युधिष्ठिर से (इस प्रकार) कहा।

धृतराष्ट्र बोले- कुरुनन्‍दन! तुमने यह राज्‍याभिषेक प्राप्‍त किया है, जो अजितात्‍मा पुरुषों के लिये दुर्लभ है। राजन्! तुम राज्‍य पाकर कृतार्थ हो गये। अत: आज ही खाण्डवप्रस्थ चले जाओ। नृपश्रेष्‍ठ! पुरुरवा, आयु, नहुष तथा ययाति खाण्‍डवप्रस्‍थ में ही निवास करते थे। महाबाहो! वहीं समस्‍त पौरव नरेशों की राजधानी थी। आगे चलकर मुनियों ने बुधपुत्र के लोभ से खाण्‍डवप्रस्‍थ को नष्‍ट कर दिया था। इसलिये तुम खाण्‍डवप्रस्‍थ नगर को पुन: बसाओ और अपने राष्‍ट्र की वृद्धि करो। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्‍य तथा शूद्र सबने तुम्‍हारे साथ वहाँ जाने का निश्‍चय किया है। तुममें भक्ति रखने के कारण दूसरे लोग भी उस सुन्‍दर नगर का आश्रय लेंगे। निष्‍पाप कुन्‍तीकुमार! वह नगर तथा राष्‍ट्र समृद्धिशाली और धन-धान्‍य से सम्‍पन्‍न है। अत: तुम भाइयों सहित वहीं जाओ। वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! राजा धृतराष्‍ट्र की बात मानकर पाण्‍डवों ने उन्‍हें प्रणाम किया और आधा राज्‍य पाकर वे खाण्‍डवप्रस्‍थ की ओर चल दिये, जो भयंकर वन के रुप में था। धीरे-धीरे वे खाण्‍डवप्रस्‍थ में जा पहुँचे।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः