- महाभारत आदि पर्व के ‘अंशावतरण पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 61 के अनुसार कौरव-पाण्डवों में फूट और युद्ध होने का वृत्तांत का वर्णन इस प्रकार है[1]-
राजन जिस प्रकार कौरव और पण्डवों में फूट पड़ी, वह प्रसंग सुनो। राज्य के लिये जो जुआ खेला गया, उससे उनमें फूट हुई और उसी के कारण पाण्डवों का वनवास हुआ। भरतश्रेष्ठ फिर जिस प्रकार पृथ्वी के वीरों का विनाश करने वाला महाभारत-युद्ध हुआ, वह तुम्हारे प्रश्न के अनुसार तुमसे कहता हूं, सुनो। अपने पिता महाराज पाण्डु के स्वर्गवासी हो जाने पर वे वीर पाण्डव वन से अपने राजभवन में आकर रहने लगे। वहाँ थोड़े ही दिनों में वे वेद तथा धनुर्वेद के पूरे पण्डित हो गये। सत्व (धैर्य और उत्साह), वीर्य (पराक्रम) तथा ओज (देहबल) से सम्पन्न होने के कारण पाण्डव लोग पुरवासियों के प्रेम और सम्मान के पात्र थे। उनके धन, सम्पत्ति और यश की वृद्धि होने लगी। यह सब देखकर कौरव उनके उत्कर्ष को सह न सके। तब क्रूर दुर्योधन, कर्ण और शकुनि तीनों ने मिलकर पाण्डवों को वश में करने तथा देश से निकाल देने के लिये नाना प्रकार के यत्न आरम्भ किये। शकुनि की सम्मति से चलने वाले शूरवीर दुर्योधन ने राज्य के लिये भाँति-भाँति के उपाय करके पाण्डवों को पीड़ा दी। उस पापी धृतराष्ट्र ने भीमसेन को विष भी दे दिया, किंतु वीरवर भीमसेन ने भोजन के साथ उस विष को भी पचा लिया। फिर दुर्योधन ने गंगा के प्रमाण कोटि नामक तीर्थ पर सोये हुए भीमसेन को बांधकर गंगा जी के गहरे जल में डाल दिया और स्वयं नगर में लौट आया।
जब कुन्तीनन्दन महाबाहु भीम की आंख खुली, तब वे सारा बन्धन तोड़कर बिना किसी पीड़ा के उठ खड़े हुए। एक दिन दुर्योधन ने भीमसेन को सोते समय उनके सम्पूर्ण अंग-प्रत्यंगो में काले सांपो से डंसवा दिया, किंतु शत्रुघाती भीम मर न सके। कौरवों के द्वारा किये हुए उन सभी अपकारों के समय पाण्डवों को उनसे छुड़ाने अथवा उनका प्रतीकार करने के लिये परम बुद्धिमान विदुरजी सदा सावधान रहते थे। जैसे स्वर्ग लोक में निवास करने वाले इन्द्र सम्पूर्ण जीव-जगत को सुख पहुँचाते रहते हैं, उसी प्रकार विदुरजी भी सदा पाण्डवों को सुख दिया करते थे। भविष्य में जो घटना घटित होने वाली थी, उसके लिये मानो दैव ही पाण्डवों की रक्षा कर रहा था। जब छिपकर या प्रकटरुप में किये हुए अनेक उपायों से भी दुर्योधन पाण्डवों का नाश न कर सका तब उसने कर्ण और दु:शासन आदि मन्त्रियों से सलाह करके धृतराष्ट्र की आज्ञा से बारणावत नगर में एक लाह का घर बनाने की आज्ञा दी। अम्बिकानन्दन धृतराष्ट्र अपने पुत्र का प्रिय चाहने वाले थे। अत: उन्होंने राज्य भोग की इच्छा से पाण्डवों को हस्तिनापुर छोड़कर बारणावत के लाक्षागृह में रहने की आज्ञा दे दी।[1]
माता सहित पांचो पाण्ड़व एक साथ हस्तिनापुर से प्रस्थित हुए। उन महात्मा पाण्डवों के प्रस्थान काल में विदुर जी सलाह देने वाले हुए। उन्ही की सलाह एवं सहायता से पाण्डव लोग लाक्षागृह से बचकर आधी रात के समय वन में भाग निकले थे। धृतराष्ट्र की आज्ञा से शत्रुओं का दमन करने वाले कुन्तीकुमार महात्मा पाण्डव बारणावत नगर में आकर लाक्षागृह में अपनी माता के साथ रहने लगे। पुरोचन से सुरक्षित हो सदा सजग रहकर उन्होंने एक वर्ष तक वहाँ निवास किया। फिर विदुर की प्रेरणा से (विदुर के भेजे हुए आदमियों से) पाण्डवों ने एक सुरंग खुदवायी। तत्पश्चात् वे शत्रुसंतापी पाण्डव उस लाक्षागृह में आग लगा पुरोचन को दग्ध करके भय से व्याकुल हो माता सहित सुरंग द्वारा वहाँ से निकल भागे। तत्पश्चात् वन में एक झरने के पास उन्होंने एक भयंकर राक्षस को देखा, जिसका नाम हिडिम्ब था।
राक्षसराज हिडिम्ब को मारकर पाण्डव लोग प्रकट होने के भय से रात में ही वहाँ से दूर निकल गये। उस समय उन्हें धृतराष्ट्र के पुत्रों का भय सता रहा था। हिडिम्ब-वध के पश्चात् भीम को हिडिम्बा नाम की राक्षसी पत्नी रुप में प्राप्त हुई, जिसके गर्भ से घटोत्कच का जन्म हुआ। तदनन्तर कठोर व्रत का पालन करने वाले पाण्डव एकचक्रा नगरी में जाकर वेदाध्ययन परायण ब्रह्मचारी बन गये। उस एकचक्रा नगरी में नरश्रेष्ठ पाण्डव अपनी माता के साथ एक बाह्मण के घर में कुछ काल तक टिके रहे। उस नगर के समीप एक मनुष्य भक्षी राक्षस रहता था, जिसका नाम था बक। एक दिन महाबाहु भीमसेन उस क्षुधातर महाबली राक्षस बक के समीप गये। नरश्रेष्ठ पाण्डुनन्दन वीरवर भीम ने अपने बाहुबल से उस राक्षस को वेग पूर्वक मारकर वहाँ के नगर वासियों को धीरज बधांया। वहीं सुनने में आया कि पाञ्चालदेश की राजकुमारी कृष्णा का स्वयंवर होने वाला है। यह सुनकर पाण्डव वहाँ गये और जाकर उन्होंने राजकुमारी को प्राप्त कर लिया। द्रौपदी को प्राप्त करने के बाद पहचान लिये लाने पर भी वे एक वर्ष तक पाञ्चाल देश में ही रहे।
फिर वे शत्रुदमन पाण्डव पुन: हस्तिनापुर लौट आये। वहाँ आने पर राजा धृतराष्ट्र तथा शान्तनु नन्दन भीष्मजी ने उनसे कहा- ‘तात तुम्हें अपने भाई कौरवों के साथे लड़ने-झगड़ने का अवसर न प्राप्त सके लिये हमने विचार किया है कि तुम लोग खाण्डवप्रस्थ में रहो। वहाँ अनेक जनपद उससे जुड़े हुए हैं। वहाँ सुन्दर विभाग पूर्वक बड़ी-बड़ी सड़कें बनी हुई हैं। अत: तुम लोग ईर्ष्या का त्याग करके खण्डवप्रस्थ में रहने के लिये जाओ। उन दोनों के इस प्रकार आज्ञा देने पर सब पाण्डव अपने समस्त सुहृदों के साथ सब प्रकार के रत्न लेकर खण्डवप्रस्थ को चले गये। वहाँ वे कुन्ती पुत्र अपने अस्त्र-शस्त्रों के प्रताप से अन्यान्य राजाओं को अपने वश में करते हुए बहुत वर्षों तक निवास करते रहे। इस प्रकार धर्म को प्रधानता देने वाले, सत्यव्रत के पालन में तत्पर, सदा सावधान एवं सजग रहने वाले, क्षमाशील पाण्डव वीर बहुत से शत्रुओं को संतप्त करते हुए वहाँ निवास करने लगे। महायशस्वी भीमसेन ने पूर्व दिशा पर विजय पायी। वीर अर्जुन ने उत्तर, नकुल ने पश्चिम और शत्रु वीरों का संहार करने वाले सहदेव ने दक्षिण दिशा पर विजय प्राप्त की।[2]
इसे तरह सब पाण्डवों ने समूची पृथ्वी को अपने वश में कर लिया। वे पांचो भाई सूर्य के समान तेजस्वी थे ओर आकाश में नित्य उदित होने वाले सूर्य तो प्रकाशित थे ही; इस तरह सत्य पराक्रमी पाण्डवों के होने से यह पृथ्वी मानो छ: सूर्यों से प्रकाशित होने वाली बन गयी। तदनन्तर कोई निमित्त बन जाने के कारण सत्यपराक्रमी तेजस्वी धर्मराज युधिष्ठिर अपने प्राणों से भी अत्यन्त प्रिय स्थिर- बुद्धि तथा सद्गुण युक्त भाई नरश्रेष्ठ सव्यसाची अर्जुन को वन में भेज दिया। अर्जुन अपने धैर्य, सत्य, धर्म और विजय शीलता के कारण भाईयों को अधिक प्रिय थे। उन्होंने अपने बड़े भाई की आज्ञा का कभी उल्लंघन नहीं किया था। वे पूरे बारह वर्ष और एक मास तक वन में रहे। उसी समय उन्होंने निर्मल तीर्थो की यात्रा की और नाग कन्या उलूपी को पाकर पाण्डयदेशीय नरेश चित्रवाहन की पुत्री चित्रांगदा को भी प्राप्त किया और उन-उन स्थानों में उन दोनों के साथ कुछ काल तक निवास किया।
तत्पश्चात् वे किसी समय द्वारका में भगवान श्रीकृष्ण के पास गये। वहाँ अर्जुन ने मंगलमय वचन बोलने वाली कमललोचना सुभद्रा को, जो वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण की छोटी बहिन थी, पत्नी रुप में प्राप्त किया। जैसे इन्द्र से शची और भगवान विष्णु से लक्ष्मी संयुक्त हुई है, उसी प्रकार सुभद्रा बड़े प्रेम से पाण्डुनन्दन अर्जुन से मिली। तत्पश्चात् कुन्तीकुमार अर्जुन ने खाण्डवप्रस्थ में भगवान वासुदेव के साथ रहकर अग्निदेव को तृप्त किया। नृपश्रेष्ठ जनमेजय भगवान श्रीकृष्ण का साथ होने से अर्जुन को इस कार्य में ठीक उसी तरह अधिक परिश्रम या भार का अनुभव नहीं हुआ, जैसे दृढ़ निश्चय को सहायक बनाकर देवशत्रुओं का वध करते समय भगवान विष्णु को भार या परिश्रम की प्रतीती नहीं होती है। तदनन्तर अग्निदेव ने संतुष्ट हो अर्जुन को उत्तम गाण्डीव धनुष, अक्षय बाणों से भरे हुए दो तूणीर और एक कपिध्वज रथ प्रदान किया। उसी समय अर्जुन ने महान असुर मय को खाण्डव वन में जलने से बचाया था।
इससे संतुष्ट होकर उसने अर्जुन के लिये एक दिव्य सभा भवन का निर्माण किया, जो सब प्रकार के रत्नों से सुशोभित था। खोटी बुद्धि वाले मूर्ख दुर्योधन के मन में उस सभा को लेने के लिये लोभ पैदा हुआ। तब उसने शकुनि की सहायता से कपटपूर्ण जुए के द्वारा युधिष्ठिर को ठग लिया और उन्हें बारह वर्ष तक वन में और तेरहवें वर्ष एक राष्ट्र में अज्ञातरुप से वास करने के लिये भेज दिया। इसके बाद चौदहवें वर्ष में पाण्डवों ने लौटकर अपना राज्य और धन मांगा। महाराज जब इस प्रकार न्याय पूर्वक मांगने पर भी उन्हें राज्य नहीं मिला, तब दोनों दलों में युद्ध छिड़ गया। फिर तो पाण्डव-वीरों ने क्षत्रियकुल का संहार करके राजा दुर्योधन को भी मार डाला और अपने राज्य को, जिसका अधिकांश भाग उजाड़ हो गया था, पुन: अपने अधिकार में कर लिया। विजयी वीरों में श्रेष्ठ जनमेजय अनायास महान कर्म करने वाले पाण्डवों का यही पुरातन इतिहास है। इस प्रकार राज्य के विनाश के लिये उनमें फूट पड़ी और युद्ध के बाद उन्हें विजय प्राप्त हुई।[3]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 61 श्लोक 1-18
- ↑ महाभारत आदि पर्व अध्याय 61 श्लोक 19-38
- ↑ महाभारत आदि पर्व अध्याय 61 श्लोक 39-53
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| द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह
| कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व
पाण्डवों के विवाह से दुर्योधन को चिन्ता
| धृतराष्ट्र का पाण्डवों के प्रति प्रेम का दिखावा
| धृतराष्ट्र-दुर्योधन की बातचीत, शत्रुओं को वश में करने के उपाय
| पाण्डवों को पराक्रम से दबाने के लिए कर्ण की सम्मति
| भीष्म की दुर्योधन से पाण्डवों को आधा राज्य देने की सलाह
| द्रोणाचार्य की पाण्डवों को उपहार भेजने की सम्मति
| विदुर की सम्मति, द्रोण-भीष्म के वचनों का समर्थन
| धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर का द्रुपद के पास जाना
| पाण्डवों का हस्तिनापुर आना
| इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण
| श्रीकृष्ण-बलरामजी का द्वारका प्रस्थान
| पाण्डवों के यहाँ नारदजी का आगमन
| नारद द्वारा सुन्द-उपसुन्द कथा का प्रस्ताव
| सुन्द-उपसुन्द की तपस्या
| सुन्द-उपसुन्द द्वारा त्रिलोक विजय
| तिलोत्तमा की उत्पत्ति एवं सुन्दोपसुन्द को मोहित करने हेतु प्रस्थान
| तिलोत्तमा की वजह से सुन्द-उपसुन्द में लड़ाई
| तिलोत्तमा को ब्रह्माजी द्वारा वरदान
| पाण्डवों का द्रौपदी के विषय में नियम-निर्धारण
अर्जुन वनवास पर्व
अर्जुन द्वारा गोधन की रक्षा के लिए नियम-भंग
| अर्जुन का गंगाद्वार में रुकना एवं उलूपी से मिलन
| अर्जुन का मणिपूर में चित्रांगदा से पाणिग्रहण
| अर्जुन द्वारा वर्गा अप्सरा का उद्धार
| वर्गा की आत्मकथा
| अर्जुन का प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण से मिलना
सुभद्रा हरण पर्व
अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना
| यादवों की अर्जुन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी
हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह
| अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना
| द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
खाण्डव दाह पर्व
युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता
| अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना
| राजा श्वेतकि की कथा
| अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना
| अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना
| खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा
| देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
मय दर्शन पर्व
खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा
| मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति
| जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना
| जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद
| शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना
| मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना
| इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान
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