एकषष्टितम (61) अध्याय: आदि पर्व (अंशावतरण पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: एकषष्टितम अध्याय: श्लोक 39-53 का हिन्दी अनुवाद
तत्पश्चात वे किसी समय द्वारका में भगवान श्रीकृष्ण के पास गये। वहाँ अर्जुन ने मंगलमय वचन बोलने वाली कमललोचना सुभद्रा को, जो वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण की छोटी बहिन थी, पत्नी रुप में प्राप्त किया। जैसे इन्द्र से शची और भगवान् विष्णु से लक्ष्मी संयुक्त हुई है, उसी प्रकार सुभद्रा बड़े प्रेम से पाण्डुनन्दन अर्जुन से मिली। तत्पश्चात् कुन्तीकुमार अर्जुन ने खाण्डवप्रस्थ में भगवान् वासुदेव के साथ रहकर अग्निदेव को तृप्त किया। नृपश्रेष्ठ जनमेजय! भगवान् श्रीकृष्ण का साथ होने से अर्जुन को इस कार्य में ठीक उसी तरह अधिक परिश्रम या भार का अनुभव नहीं हुआ, जैसे दृढ़ निश्चय को सहायक बनाकर देवशत्रुओं का वध करते समय भगवान विष्णु को भार या परिश्रम की प्रतीती नहीं होती है। तदनन्तर अग्निदेव ने संतुष्ट हो अर्जुन को उत्तम गाण्डीव धनुष, अक्षय बाणों से भरे हुए दो तूणीर और एक कपिध्वज रथ प्रदान किया। उसी समय अर्जुन ने महान् असुर मय को खाण्डव वन में जलने से बचाया था। इससे संतुष्ट होकर उसने अर्जुन के लिये एक दिव्य सभा भवन का निर्माण किया, जो सब प्रकार के रत्नों से सुशोभित था। खोटी बुद्धि वाले मूर्ख दुर्योधन के मन में उस सभा को लेने के लिये लोभ पैदा हुआ। तब उसने शकुनि की सहायता से कपटपूर्ण जुए के द्वारा युधिष्ठिर को ठग लिया और उन्हें बारह वर्ष तक वन में और तेरहवें वर्ष एक राष्ट्र में अज्ञातरुप से वास करने के लिये भेज दिया। इसके बाद चौदहवें वर्ष में पाण्डवों ने लौटकर अपना राज्य और धन मांगा। महाराज! जब इस प्रकार न्यायपूर्वक मांगने पर भी उन्हें राज्य नहीं मिला, तब दोनों दलों में युद्ध छिड़ गया। फिर तो पाण्डव-वीरों ने क्षत्रियकुल का संहार करके राजा दुर्योधन को भी मार डाला और अपने राज्य को, जिसका अधिकांश भाग उजाड़ हो गया था, पुन: अपने अधिकार में कर लिया। विजयी वीरों में श्रेष्ठ जनमेजय! अनायास महान् कर्म करने वाले पाण्डवों का यही पुरातन इतिहास है। इस प्रकार राज्य के विनाश के लिये उनमें फूट पड़ी और युद्ध के बाद उन्हें विजय प्राप्त हुई। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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