- महाभारत आदि पर्व के ‘सम्भव पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 76 के अनुसार कच का शिष्य भाव से शुक्राचार्य और देवयानी की सेवा में सलंग्न होना और अनेक कष्ट सहने के पश्चात् मृतसंजीवनी विद्या प्राप्त करने का वर्णन इस प्रकार है[1]-
जनमेजय ने पूछा - तपोधन हमारे पूर्वज महाराज ययाति ने, जो प्रजापति से दसवीं पीढ़ी में उत्पन्न हुए थे, शुक्राचार्य की अत्यन्त दुर्लभ पुत्री देवयानी को पत्नी रुप में कैसे प्राप्त किया? मैं इस वृत्तान्त को विस्तार से सुनना चाहता हूँ। आप मुझसे सभी वंश-प्रवर्तक राजाओं को क्रमश: पृथक-पृथक वर्णन कीजिये।
वैशम्पायन जी ने कहा - जनमेजय राजा ययाति देवराज इन्द्र के समान तेजस्वी थे। पूर्वकाल में शुक्राचार्य और वृषपर्वा ने ययाति का अपनी-अपनी कन्या के पति रूप में जिस प्रकार वरण किया, वह प्रसंग तुम्हारे पूछने पर मैं तुमसे कहूंगा। साथ ही यह भी बताऊंगा कि नहुषनन्दन ययाति तथा देवयानी का संयोग किस प्रकार हुआ। एक समय चराचर प्राणियों सहित समस्त त्रिलोकी के ऐश्वर्य के लिये देवताओं और असुरों में परस्पर बड़ा भारी संघर्ष हुआ। उसमें विजय पाने की इच्छा से देवताओं ने अंगिरा मुनि के पुत्र बृहस्पति का पुरोहित के पद पर वरण किया और दैत्यों ने शुक्राचार्य को पुरोहित बनाया। वे दोनों ब्राह्मण सदा आपस में बहुत लाग-डाट रखते थे। देवताओं ने उस युद्ध में आये हुए जिन दानवों को मारा था, उन्हें शुक्राचार्य ने अपनी संजीविनी विद्या के बल से पुन: जीवित कर दिया। अत: वे पुन: उठकर देवताओं से युद्ध करने लगे। परंतु असुरों ने युद्ध के मुहाने पर जिन देवताओं को मारा था, उन्हें उदार बुद्धि बृहस्पति जीवित न कर सके। क्योंकि शक्तिशाली शुक्राचार्य जिस संजीविनी विद्या को जानते थे, उसका ज्ञान बृहस्पति को नहीं था। इससे देवताओं को बड़ा विषाद हुआ। इससे देवता शुक्राचार्य के भय से उद्विग्न हो उस समय वृहस्पति के ज्येष्ठ पुत्र कच के पास जाकर बोले। ‘ब्रह्मन हम आपके सेवक हैं। आप हमें अपनाइये और हमारी उत्तम सहायता कीजिये। अमित तेजस्वी ब्राह्मण शुक्राचार्य के पास जो मृतसंजीवनी विद्या है, उसे शीघ्र सीखकर यहाँ ले आइये। इससे आप हम देवताओं के साथ यज्ञ में भाग प्राप्त कर सकेंगे। राजा वृषवर्षा के समीप आपको विप्रवर शुक्राचार्य का दर्शन हो सकता है।
‘वहाँ रहकर वे दानवों की रक्षा करते हैं। जो दानव नहीं हैं, उनकी रक्षा नहीं करते। आपकी अभी नयी अवस्था है, अत: आप शुक्राचार्य की आराधना (करके उन्हें प्रसन्न) करने में समर्थ हैं। ‘उन महात्मा की प्यारी पुत्री का नाम देवयानी है, उसे अपनी सेवाओं द्वारा आप ही प्रसन्न कर सकते हैं। दूसरा कोई इसमें समर्थ नहीं है। ‘अपने शील-स्वभाव, उदारता, मधुर व्यवहार, सदाचार तथा इन्द्रिय संयम द्वारा देवयानी को संतुष्ट कर लेने पर आप निश्चय ही उस विद्या को प्राप्त कर लेंगे।’ तब ‘बहुत अच्छा’ कहकर बृहस्पति पुत्र कच देवताओं से सम्मानित हो वहाँ से वृषवर्षा के समीप गये। राजन देवताओं के भेजे हुए कच तुरंत दानव राज वृषवर्षा के नगर में जाकर शुक्राचार्य से मिले और इस प्रकार बोले-‘भगवन मैं अंगिरा ऋषि का पौत्र तथा साक्षात बृहस्पति का पुत्र हूँ। मेरा नाम कच है। आप मुझे अपने शिष्य के रुप में ग्रहण करें। ‘ब्रह्मन आप मेरे गुरु हैं। मैं आपके समीप रहकर एक हजार वर्षों तक उत्तम व्रह्मचर्य का पालन करुंगा। इसके लिये आप मुझे अनुमति दें।’[1]
शुक्राचार्य ने कहा- कच तुम्हारा भलीभाँति स्वागत है; मैं तम्हारी प्रार्थना स्वीकार करता हूँ। तुम मेरे लिये आदर के पात्र हो, अत: मैं तुम्हारा सम्मान एवं सत्कार करुंगा। तुम्हारे आदर सत्कार से मेरे द्वारा बृहस्पति का आदर-सत्कार होगा।
वैशम्पायन जी कहते हैं - तब कच ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर महा कान्तिमान कवि पुत्र शुक्राचार्य के आदेश के अनुसार स्वयं ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया। जनमेजय नियत समय तक के लिये व्रत की दीक्षा लेने वाले कच को शुक्राचार्य ने भली-भाँति अपना लिया। कच आचार्य शुक्र तथा उनकी पुत्री देवयानी दोनों की नित्य आराधना करने लगे। वे नवयुवक थे और जवानी में प्रिय लगने वाले कार्य-गायन और नृत्य करके तथा भाँति-भाँति के बाजे वजाकर देवयानी को संतुष्ट रखते थे। भारत आचार्य कन्या देवयानी भी युवावस्था में पदार्पण कर चुकी थी। कच उसके लिये फूल और फल ले आते तथा उसकी आज्ञा के अनुसार कार्य करते थे। इस प्रकार उसकी सेवा में संलग्न रहकर वे सदा उसे प्रसन्न रखते थे। देवयानी भी नियम पूर्वक ब्रह्मचर्य धारण करने वाले कच के ही समीप रहकर गाती और आमोद-प्रमोद करती हुई एकान्त में उनकी सेवा करती थी। इस प्रकार वहीं रहकर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए कच के पांच सौ वर्ष व्यतीत हो गये। तब दानवों को यह बात मालूम हुई। तदनन्तर कच को वन के एकान्त प्रदेश में अकेले गौऐं चराते देख बृहस्पति के द्वेष से और संजीविनी विद्या की रक्षा के लिये क्रोध में भरे हुए दानवों ने कच को मार डाला। उन्होंने मारने के बाद उनके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर कुत्तों और सियारों को बांट दिया। उन दिन गौऐं बिना रक्षक के ही अपने स्थान पर लौटीं। जनमेजय जब देवयानी ने देखा, गौऐं तो वन से लौट आयीं पर उनके साथ कच नहीं है, तब उसने उस समय अपने पिता से इस प्रकार कहा।
विषय सूची
कच का मृत संजीवनी विद्या प्राप्त करना
देवयानी बोली - प्रभो आपने अग्निहोत्र कर लिया और सूर्यदेव भी अस्ताचल को चले गये। गौऐं भी आज बिना रक्षक के ही लौट आयी हैं। तात तो भी कच नहीं दिखाई देते हैं। पिताजी अवश्य की कच या तो मारे गये हैं या मर गये हैं। मैं आपसे सच कहती हूं, उनके बिना जीवित नहीं रह सकूंगी।
शुक्राचार्य ने कहा - (बेटी चिन्ता न करो।) मैं अभी ‘आओ’ इस प्रकार बुलाकर मरे हुए कच को जीवित किये देता हूँ। ऐसा कहकर उन्होंने संजीविनी विद्या का प्रयोग किया और कच को पुकारा। फिर तो गुरु के पुकारने पर कच विद्या के प्रभाव से हृष्ट-पुष्टहो कुत्तों के शरीर फाड़-फाड़कर निकल आये और वहाँ प्रकट हो गये। उन्हें देखते ही
देवयानी ने पूछा - ‘आज आपने लौटने में बिलम्व क्यों किया?’ इस प्रकार पूछने पर कच ने शुक्राचार्य की कन्या से कहा-‘भामिनि मैं समिधा, कुश आदि और काष्ठ का भार लेकर आ रहा था। रास्ते में थकावट और भारत से पीड़ित हो एक बट वृक्ष के नीचे ठहर गया। साथ ही सारी गौऐं भी उसी वृक्ष की छाया में आकर विश्राम करने लगीं। ‘वहाँ मुझे देखकर असुरों ने पूछा- ‘तुम कौन हो?’ मैंने कहा- मेरा नाम कच है, मैं बृहस्पति का पुत्र हूँ।[2] ‘मेरे इतना कहते ही दानवों ने मुझे मार डाला और मेरे शरीर को चूर्ण करके कुत्ते-सियारों को बांट दिया। फिर वे सुख पूर्वक अपने घर चले गये। ‘भद्रे फिर महात्मा भार्गव ने जब विद्या का प्रयोग करके मुझे बुलाया है, तब किसी प्रकार से पूर्ण जीवन लाभ करके यहाँ तुम्हारे पास आ सका हूं’। इस प्रकार ब्राह्मण कन्या के पूछने पर कच ने उससे अपने मारे जाने की बात बतायी। तदनन्तर पुन: देवयानी ने एक दिन अकस्मात कच को फूल लाने के लिये कहा। विप्रवर कच इसके लिये वन में गये। वहाँ दानवों ने उन्हें देख लिया और फिर उन्हें पीसकर समुद्र के जल में घोल दिया। जब उसके विषय में विलम्ब हुआ, तब आचार्य कन्या ने पितासे पुन: यह बात बतायी। विप्रवर शुक्राचार्य ने कच का पुन: संजीविनी विद्या द्वारा आवाहन किया। इससे बृहस्पति पुत्र कच पुन: वहाँ आ पहुँचे और उनके साथ असुरों ने जो वर्ताव किया था, वह बताया। तत्पश्चात् असुरों ने तीसरी बार कच को मारकर आग में जलाया और उनकी जली हुई लाश का चूर्ण बनाकर मदिरा में मिला दिया तथा उसे ब्राह्मण शुक्राचार्य को ही पिला दिया। अब देवयानी पुन: अपने पिता से यह बात बोली- ‘पिताजी कच मेरे कहने पर प्रत्येक कार्य पूर्ण कर दिया करते हैं। आज मैंने उन्हें फूल लाने के लिये भेजा था, परंतु अभी तक वे दिखाई नहीं दिये। ‘तात जान पड़ता है वे मार दिये गये या मर गये। मैं आपसे सच कहती हूं, मैं उनके बिना जीवित नहीं रह सकती हूं’।
शुक्राचार्य ने कहा - बेटी बृहस्पति के पुत्र कच मर गये। मैंने विद्या से उन्हें कई बार जिलाया, तो भी वे इस प्रकार मार दिये जाते हैं, अब मैं क्या करूं। देवयानी तुम इस प्रकार शोक न करो, रोओ मत। तुम-जैसी शक्तिशालिनी स्त्री किसी मरने वाले के लिये शोक नहीं करती। तुम्हें तो वेद, ब्राह्मण, इन्द्र सहित सब देवता, वसुगण,अश्विनीकुमार, दैत्य तथा सम्पूर्ण जगत् के प्राणी मेरे प्रभाव से तीनों संध्याओं के समय मस्तक झुकाकर प्रणाम करते हैं। अब उस ब्राह्मण को जिलाना असम्भव है। यदि जीवित हो जाय, तो फिर दैत्यों द्वारा मार डाला जायेगा (अत: उसे जिलाने से कोई लाभ नहीं है)।
देवयानी बोली - पिताजी अत्यन्त वृद्ध महर्षि अंगिरा जिनके पितामह हैं, तपस्या के भण्डार बृहस्पति जिनके पिता हैं, जो ऋषि के पुत्रऔर ऋषि के ही पौत्र हैं; उन ब्रह्मचारी कच के लिये मैं कैसे शोक न करूं और कैसे न रोऊं? तात ये ब्रह्मचर्य पालन में रत थे, तपस्या ही उनका धन था। वे सदा ही सजग रहने वाले और कार्य करने में कुशल थे। इसलिये कच मुझे बहुत प्रिय थे। वे सदा मेरे मन के अनुरुप चलते थे। अब मैं भोजन का त्याग कर दूंगी और कच जिस मार्ग पर गये हैं, वहीं मैं भी चली जाऊंगी। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय देवयानी के कहने से उसके दु:ख से दुखी हुए महर्षि शुक्राचार्य ने कच को पुकारा और दैत्यों के प्रति कुपित होकर बोले- ‘इसमें तनिक भी संशय नहीं है कि असुरलोग मुझसे द्वेष करते हैं। तभी तो यहाँ आये हुए मेरे शिष्यों को ये लोग मार डालते हैं।[3]
‘वे भयंकर स्वभाव वाले दैत्य मुझे ब्राह्मणत्व से गिराना चाहते हैं। इसलिये प्रतिदिन मेरे विरुद्ध आचरण कर रहे हैं। इस पाप का परिणाम यहाँ अवश्य प्रकट होगा। ब्रह्म हत्या किसे नहीं जला देगी। चाहे वह इन्द्र ही क्यों न हो? जब गुरु विद्या का प्रयोग करके बुलाया, तब उनके पेट में बैठे हुए कच भयभीत हो धीरे से बोले। कच ने कहा- भगवन् आप मुझपर प्रसन्न हों, मैं कच हूँ और आपके चरणों में प्रणाम करता हूँ। जैसे पुत्र पर पिता का बहुत प्यार होता है, उसी प्रकार आप मुझे भी अपना स्नेहभाजन समझें। वैशम्पायनजी कहते हैं- उनकी आवाज सुनकर शुक्राचार्य ने पूछा- ‘विप्र किस मार्ग से जाकर तुम मेरे उदर में स्थित हो गये? ठीक-ठीक बताओ’। कच ने कहा- गुरुदेव आपके प्रसाद से मेरी स्मरणशक्ति ने साथ नहीं छोड़ा है। जो बात जैसे हुई है, वह सब मुझे याद है। इस प्रकार पेट फाड़कर निकल आने से मेरी तपस्या का नाश होगा। वह न हो, इसीलिये मैं यहाँ घोर क्लेश सहन करता हूँ। आचार्यपाद असुरों ने मुझे मारकर मेरे शरीर को जलाया और चूर्ण बना दिया। फिर उसे मदिरा में मिलाकर आपको पिला दिया आप ब्राह्मी, आसुरी और दैवी तीनों प्रकार की मायाओं को जानते हैं। आपके होते हुए कोई इन मायाओं का उल्लंघन कैसे कर सकता है? शुक्राचार्य बोले- बेटी देवयानी अब तुम्हारे लिये कौन-सा प्रिय कार्य करूं? मेरे वध से ही कच का जीवित होना सम्भव है। मेरे उदर को विदीर्ण करने के सिवा और कोई ऐसा उपाय नहीं है,जिससे मेरे शरीर में बैठा हुआ कच बाहर दिखाई दे। देवयानी ने कहा- पिताजी कच का नाश और आपका वध- ये दोनों ही शोक अग्नि के समान मुझे जला देंगे। कच के नष्ट होने पर मुझे शान्ति नहीं मिलेगी और आपका वध हो जाने पर मैं जीवित नहीं रह सकूंगी।
शुक्राचार्य बोले - बृहस्पति के पुत्र कच अब तुम सिद्ध हो गये, क्योंकि तुम देवयानी के भक्त हो और वह तुम्हें चाहती है। यदि कच के रुप में तुम इन्द्र नहीं हो, तो मुझसे मृतसंजीविनी विद्या ग्रहण करो। केवल एक ब्राह्मण को छोड़कर दूसरा कोई ऐसा नहीं है, जो मेरे पेट से पुन: जीवित निकल सके। इसलिये तुम विद्या ग्रहण करो। तात मेरे इस शरीर से जीवित निकलकर मेरे लिये पुत्र के तुल्य हो मुझे पुन: जिला देना। मुझ गुरु से विद्या प्राप्त करके विद्वान् हो जाने पर भी मेरे प्रति धर्मयुक्त दृष्टि से ही देखना। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय गुरु से संजीविनी विद्या प्राप्त करके सुन्दर रूप वाले विप्रवर कच तत्काल ही महर्षि शुक्राचार्य का पेट फाड़कर ठीक उसी तरह बाहर निकल आये, जैसे दिन वीतने पर पूर्णिमा की संध्या को चन्द्रमा प्रकट हो जाते हैं। मूर्तिमान वेदराशि के तुल्य शुक्राचार्य को भूमि पर पड़ा देख कच ने भी अपने मरे हुए गुरु को विद्या के वल से जिलाकर उठा दिया और उस सिद्ध विद्या को प्राप्त कर लेनेपर गुरु को प्रणाम करके वे इस प्रकार बोले-‘मैं विद्या से शून्य था, दस दशा में मेरे इन पूजनीय आचार्य जैसे मेरे दोनों कानों में मृतसंजीविनी विद्यारुप अमृत की धारा डाली है, इसी प्रकार जो कोई दूसरे ज्ञानी महात्मा मेरे कानों में ज्ञान रुप अमृत का अभिषेक करेंगे, उन्हें भी मैं अपना माता-पिता मानूंगा (जैसे गुरुदेव शुक्राचार्य को मानता हूं) गुरुदेव के द्वारा किये हुए उपकार को स्मरण रखते हुए शिष्य को उचित है कि वह उनसे कभी द्रोह न करे।[4]
‘जो लोग सम्पूर्ण वेद के सर्वोत्तम ज्ञान को देने वाले तथा समस्त विद्याओं के आश्रयभूत पूजनीय गुरुदेव का उनसे विद्या प्राप्त करके भी आदर नहीं करते, वे प्रतिष्ठा रहित होकर पाप पूर्ण लोकों- नरकों में जाते हैं। वैशम्पायनी कहते हैं- जनमेजय! विद्वान शुक्राचार्य मदिरा पान से ठगे गये थे उस अत्यन्त भयानक परिस्थिति को पहुँच गये थे, जिसमें तनिक भी चेत नहीं रह जाता। मदिरा से मोहित होने के कारण ही वे उस समय अपने मन के अनुकूल चलने वाले प्रिय शिष्य ब्राह्मण कुमार कच को भी पी गये थे। यह सब देख और सोचकर वे महानुभाव कविपुत्र शुक्र कुपित हो उठे। मदिरापान के प्रति उनके मन में क्रोध और घ्रणा का भाव जाग उठा और उन्होंने ब्राह्मणों का हित करने की इच्छा से स्वयं इस प्रकार घोषण की-‘आज से इस जगत् का कोई भी मन्दबुद्धि ब्राह्मण अज्ञान से भी मदिरापान करेगा, वह धर्म से भ्रष्ट हो ब्रह्म हत्या के पाप का भागी होगा तथा इस लोक और परलोक दोनों में वह निन्दित होगा। ‘धर्मशास्त्रों में ब्राह्मण-धर्म की जो सीमा निर्धारित की गयी है, उसी में मेरे द्वारा स्थापित की हुई यह मर्यादा भी रहे और यह सम्पूर्ण लोक में मान्य हो। साधु पुरुष, ब्राह्मण, कुरुओं के समीप अध्ययन करने वाले शिष्य, देवता और समस्त जगत् के मनुष्य, मेरी बांधी हुई इस मर्यादा को अच्छी तरह सुन लें’। ऐसा कहकर तपस्या की निधियों की निधि, अप्रमेय शक्तिशाली महानुभाव शुक्राचार्य ने दैव ने जिनकी बुद्धि को मोहित कर दिया था उन दानवों को बुलाया और इस प्रकार कहा- ‘दानवो! तुम सब मूर्ख हो। मैं तुम्हें बताये देता हूं- महात्मा कच मुझ से संजीविनी विद्या पाकर सिद्ध हो गये हैं। इनका प्रभाव मेरे ही समान है। ये ब्राह्मण ब्रह्मस्वरुप हैं। ‘जिन महात्मा कच ने देवताओं के लिये वह दुष्कर कार्य किया है, उनकी कीर्ति कभी नष्ट नहीं हो सकती और वे यज्ञभाग के अधिकारी होंगे।’ ऐसा कहकर शुक्राचार्य चुप हो गये और दानव आश्चर्यचकित होकर अपने-अपने घर को चले गये। कच ने एक हजार वर्षों तक गुरु के समीप रहकर अपना व्रत पूरा कर लिया। तब घर जाने की अनुमति मिल जाने पर कच ने देवलोक में जाने का विचार किया।[5]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 76 श्लोक 1-20
- ↑ महाभारत आदि पर्व अध्याय 76 श्लोक 21-37
- ↑ महाभारत आदि पर्व अध्याय 76 श्लोक 38-51
- ↑ महाभारत आदि पर्व अध्याय 76 श्लोक 52-63
- ↑ महाभारत आदि पर्व अध्याय 76 श्लोक 64-72
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| कृपाचार्य, द्रोण और अश्वत्थामा की उत्पत्ति
| द्रोण को परशुराम से अस्त्र-शस्त्र की प्राप्ति
| द्रोण का द्रुपद से तिरस्कृत हो हस्तिनापुर में आना
| द्रोण की राजकुमारों से भेंट
| भीष्म का द्रोण को सम्मानपूर्वक रखना
| द्रोणाचार्य द्वारा राजकुमारों की शिक्षा
| एकलव्य की गुरु-भक्ति
| द्रोणाचार्य द्वारा शिष्यों की परीक्षा
| अर्जुन द्वारा लक्ष्यवेध
| द्रोण का ग्राह से छुटकारा
| अर्जुन को ब्रह्मशिर अस्त्र की प्राप्ति
| राजकुमारों का रंगभूमि में अस्त्र-कौशल दिखाना
| भीम, दुर्योधन और अर्जुन द्वारा अस्त्र-कौशल का प्रदर्शन
| कर्ण का रंगभूमि में प्रवेश तथा राज्याभिषेक
| भीम द्वारा कर्ण का तिरस्कार और दुर्योधन द्वारा सम्मान
| द्रोण का शिष्यों द्वारा द्रुपद पर आक्रमण
| अर्जुन का द्रुपद को बंदी बनाकर लाना
| द्रोण द्वारा द्रुपद को आधा राज्य देकर मुक्त करना
| युधिष्ठिर का युवराज पद पर अभिषेक
| पाण्डवों के शौर्य, कीर्ति और बल के विस्तार से धृतराष्ट्र को चिन्ता
| कणिक का धृतराष्ट्र को कूटनीति का उपदेश
जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता
| दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव
| धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा
| दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना
| पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश
| वारणावत में पाण्डवों का स्वागत
| लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत
| विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण
| लाक्षागृह का दाह
| विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना
| हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश
| कुन्ती के लिए भीम का जल लाना
| माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना
| भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध
| हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना
| भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध
| युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना
| हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना
| भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन
| घटोत्कच की उत्पत्ति
| पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
ब्राह्मण परिवार का कष्ट दूर करने हेतु कुन्ती-भीम की बातचीत
| ब्राह्मण के चिन्तापूर्ण उद्गार
| ब्राह्मणी का पति से जीवित रहने के लिए अनुरोध करना
| ब्राह्मण कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन
| कुन्ती का ब्राह्मण कन्या के पास जाना
| कुन्ती का ब्राह्मण का दुख सुनना
| कुन्ती और ब्राह्मण की बातचीत
| भीम को वकासुर के पास भेजने का प्रस्ताव
| भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना
| भीम और वकासुर का युद्ध
| वकासुर वध से भयभीत राक्षसों का पलायन
चैत्ररथ पर्व
पाण्डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना
| द्रोण का द्रुपद द्वारा अपमानित होने का वृत्तांत
| द्रुपद के यज्ञ से धृष्टद्युम्न और द्रौपदी का जन्म
| कुन्ती का पांचाल देश में जाना
| व्यासजी का पाण्डवों से द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनाना
| पाण्डवों की पांचाल यात्रा
| अर्जुन द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं दोनों की मित्रता
| राजा संवरण का सूर्य कन्या तपती पर मोहित होना
| तपती और संवरण की बातचीत
| वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति
| गन्धर्व का ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिए आग्रह करना
| वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के आगे विश्वामित्र का पराभव
| शक्ति के शाप से कल्माषपाद का राक्षस होना
| कल्माषपाद का शाप से उद्धार
| वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति
| शक्ति पुत्र पराशर का जन्म
| पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण
| और्व और पितरों की बातचीत
| पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति
| कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप
| पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत
| ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना
| स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा
| धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना
| राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना
| अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना
| भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा
| कृष्ण-बलराम का वार्तालाप
| अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय
| द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना
| कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत
| पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह
| श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट
| धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना
| द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना
| पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान
| द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन
| द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार
| व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना
| द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना
| द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह
| कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व
पाण्डवों के विवाह से दुर्योधन को चिन्ता
| धृतराष्ट्र का पाण्डवों के प्रति प्रेम का दिखावा
| धृतराष्ट्र-दुर्योधन की बातचीत, शत्रुओं को वश में करने के उपाय
| पाण्डवों को पराक्रम से दबाने के लिए कर्ण की सम्मति
| भीष्म की दुर्योधन से पाण्डवों को आधा राज्य देने की सलाह
| द्रोणाचार्य की पाण्डवों को उपहार भेजने की सम्मति
| विदुर की सम्मति, द्रोण-भीष्म के वचनों का समर्थन
| धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर का द्रुपद के पास जाना
| पाण्डवों का हस्तिनापुर आना
| इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण
| श्रीकृष्ण-बलरामजी का द्वारका प्रस्थान
| पाण्डवों के यहाँ नारदजी का आगमन
| नारद द्वारा सुन्द-उपसुन्द कथा का प्रस्ताव
| सुन्द-उपसुन्द की तपस्या
| सुन्द-उपसुन्द द्वारा त्रिलोक विजय
| तिलोत्तमा की उत्पत्ति एवं सुन्दोपसुन्द को मोहित करने हेतु प्रस्थान
| तिलोत्तमा की वजह से सुन्द-उपसुन्द में लड़ाई
| तिलोत्तमा को ब्रह्माजी द्वारा वरदान
| पाण्डवों का द्रौपदी के विषय में नियम-निर्धारण
अर्जुन वनवास पर्व
अर्जुन द्वारा गोधन की रक्षा के लिए नियम-भंग
| अर्जुन का गंगाद्वार में रुकना एवं उलूपी से मिलन
| अर्जुन का मणिपूर में चित्रांगदा से पाणिग्रहण
| अर्जुन द्वारा वर्गा अप्सरा का उद्धार
| वर्गा की आत्मकथा
| अर्जुन का प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण से मिलना
सुभद्रा हरण पर्व
अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना
| यादवों की अर्जुन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी
हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह
| अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना
| द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
खाण्डव दाह पर्व
युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता
| अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना
| राजा श्वेतकि की कथा
| अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना
| अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना
| खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा
| देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
मय दर्शन पर्व
खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा
| मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति
| जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना
| जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद
| शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना
| मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना
| इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान
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