- महाभारत आदि पर्व के ‘अर्जुनवनवास पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 212 के अनुसार अर्जुन द्वारा गोधन की रक्षा के लिए नियम-भंग का वर्णन इस प्रकार है[1]-
वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय! इस प्रकार नियम बनाकर पाण्डव लोग वहाँ रहने लगे। वे अपने अस्त्र-शस्त्रों के प्रताप से दूसरे राजाओं को अधीन करते रहते थे। कृष्णा मनुष्यों में सिंह के समान वीर और अमित तेजस्वी उन पांचों पाण्डवों की आज्ञा के अधीन रहती थी। पाण्डव द्रौपदी के साथ और द्रौपदी उन पांचों वीर पतियों के साथ ठीक उसी तरह अत्यन्त प्रसन्न रहती थी जैसे नागों के रहने से भोगवती पुरी परम शोभायुक्त होती है। महात्मा पाण्डवों के धर्मानुसार बर्ताव करने पर समस्त कुरुवंशी निर्दोष एवं सुखी रहकर निरन्तर उन्नति करने लगे। महाराज! तदनन्तर दीर्घकाल के पश्चात एक दिन कुछ चोरों ने किसी ब्राह्मण की गौएं चुरा ली। अपने गो धन का अपहरण होता देख ब्राह्मण अत्यन्त क्रुद्ध हो उठा और खाण्डवप्रस्थ में आकर उसने उच्चस्वर से पाण्डवों को पुकारा। ‘पाण्डवों! हमारे गांव से कुछ नीच, क्रूर और पापात्मा चोर जबरदस्ती गो धन चुराकर लिये जा रहे हैं। उसकी रक्षा के लिये दौड़ी। ‘आज एक शान्त स्वभाव ब्राह्मण का हविष्य कौए लौटकर खा रहे है। नीच सियार सिंह की सूनी गुफा को रौंद रहा है। ‘जो राजा प्रजा की आय का छटा भाग करके रुप में वसूल करता हैं, किंतु प्रजा की रक्षा की कोई व्यवस्था नहीं करता, उसे सम्पूर्ण लोकों में पूर्ण पापाचारी कहा गया है। ‘मुझ ब्राह्मण का धन चोर लिये जा रहे हैं, मेरे गौ के न रहने पर दुग्ध आदि हविष्य के अभाव से धर्म और अर्थ का लोप हो रहा है तथा मैं वहाँ आकर रो रहा हूँ। पाण्डवो! (चोरों को दण्ड देने के लिये) अस्त्र धारण करो।’
वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय! वह ब्राह्मण निकट आकर बहुत रो रहा था। पाण्डु पुत्र कुन्ती नन्दन धनंजय ने उसकी कही हुई सारी बातें सुनी और सुनकर उन महाबाहु ने उस ब्राह्मण से कहा-‘डरो मत।’ महात्मा पाण्डवों के अस्त्र-शस्त्र जहाँ रखे गये थे, वहाँ धर्मराज युधिष्ठिर कृष्णा के साथ एकान्त में बैठे थे। अत: पाण्डुपुत्र अर्जुन न तो घर के भीतर प्रवेश कर सकते थे। और न ख़ाली हाथ चोरों का पीछा कर सकते थे। इधर उस आते ब्राह्मण की बातें उन्हें बार-बार शस्त्र ले आने को प्रेरित कर रही थी। जब वह अधिक रोने-चिल्लाने लगा, तब अर्जुन ने दु:खी होकर सोचा- ‘इस तपस्वी ब्राह्मण के गो धन का अपहरण हो रहा है; अत: ऐसे समय में इसके आंसू पोंछना मेरा कर्तव्य है। यही मेरा निश्चय है। ‘यदि मैं राजद्वार पर रोते हुए इस ब्राह्मण की रक्षा आज नहीं करुंगा, तो महाराज युधिष्ठिर को उपेक्षा जनित महान अधर्म का भागी होना पड़ेगा। ‘इसके सिवा लोक में यह बात फैल जायगी कि हम सब लोग किसी आर्त की रक्षा रुप धर्म के पालन में श्रद्धा नहीं रखते। साथ ही हमें अधर्म भी प्राप्त होगा। ‘यदि राजा का अनादर करके मैं घर के भीतर चला जाउं, तो महाराज अजातशत्रु के प्रति मेरी प्रतिज्ञा मिथ्या होगी।[1] ‘राजा की उपस्थिति में घर के भीतर प्रवेश करने पर मुझको वन में निवास करना होगा। इसमें महाराज के तिरस्कार के सिवा और सारी बातें तुच्छ होने के कारण उपेक्षणीय हैं। ‘चाहे राजा के तिरस्कार से मुझे नियम भंग का महान दोष प्राप्त हो अथवा वन में ही मेरी मृत्यु हो जाय तथापि शरीर को नष्ट करके भी गौ-ब्राह्मण-रक्षा रुप धर्म का पालन ही श्रेष्ठ है।’ जनमेजय! ऐसा निश्चय करके कुन्ती कुमार धनंजय से राजा से पूछकर घर के भीतर प्रवेश करके धनुष ले लिया और (बाहर आकर) प्रसन्नता पूर्वक ब्राह्मण से कहा- ‘विप्रवर! शीघ्र आइये। जब तक दूसरों के धन हड़पने की इच्छा वाले वे क्षुद्र चोर दूर नहीं चले जाते, तभी तक हम दोनों एक साथ वहाँ पहुँच जायं। मैं अभी आपका गो धन चोरों के हाथ से छीनकर आपको लौटा देता हूँ।’ ऐसा कहकर महाबाहु अर्जुन ने धनुष और कवच धारण करके ध्वजायुक्त रथ पर आरुढ़ हो उन वीरों का पीछा किया और बाणों से चोरों का विनाश करके सारा गो धन जीत लिया। फिर ब्राह्मण को वह सारा गो धन देकर प्रसन्न करके अनुपम यश के भागी हो पाण्डुपुत्र स्वयसाची वीर धनंजय पुन: अपने नगर में लौट आये। वहाँ आकर उन्होंने समस्त गुरुजनों को प्रणाम किया और उन सभी गुरुजनों ने उनकी बड़ी प्रशंसा एवं अभिनन्दन किया। इसके बाद अर्जुन ने धर्मराज से कहा - ‘प्रभो! मैंने आपको द्रौपदी के साथ देखकर पहले के निश्चित नियम को भंग किया है; अत: आप इसके लिये मुझे प्रायश्चित करने की आज्ञा दिजिये। मैं वनवास के लिये जाऊंगा; क्योंकि हम लोगों में वह शर्त हो चुकी है।’ अर्जुन के मुख से सहसा यह अप्रिय वचन सुनकर धर्मराज शोकातुर होकर लड़खड़ाती हुई वाणी में बोले - ‘ऐसा क्यों करते हो?’ इसके बाद राजा युधिष्ठिर धर्म मर्यादा से कभी च्युत न होने वाले अपने भाई गुडाकेश धनंजय से फिर दान होकर बोले- ‘अनघ! यदि तुम मुझको प्रमाण मानते हो, तो मेरी यह बात सुनो-‘वीरवर! तुमने घर के भीतर प्रवेश करके तो मेरा प्रिय कार्य किया है, अत: उसके लिये मैं तुम्हें आज्ञा देता हूं; क्योंकि मेरे हृदय में यह अप्रिय नहीं है। ‘यदि बड़ा भार्इ घर में स्त्री के साथ बैठा हो, तो छोटेभाई का वहाँ जाना दोष की बात नहीं है; परंतु छोटे भार्इ घर में हो, तो बड़े भाई का वहाँ जाना उसके धर्म का नाश करने वाला है। ‘अत: महाबाहो! मेरी बात मानो; वनवास का विचार छोड़ दी। न तो तुम्हारे धर्म का लोप हुआ है और न तुम्हारे द्वारा मेरा तिरस्कार ही किया गया है।’ अर्जुन बोले - प्रभो! मैने आपके ही मुख से सुना है कि धर्माचरण मे कभी बहाने बाजी नहीं करनी चाहिये। अत: मैं सत्य की शपथ खाकर और शस्त्र छूकर कहता हूँ कि सत्य से विचलित नहीं होउंगा। यशोवर्धन! मुझे आप वनवास के लिये आज्ञा दें, मेरा यह निश्चय है कि मैं आपकी आज्ञा के बिना कोई कार्य नहीं करुंगा। वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय! राजा की आज्ञा लेकर अर्जुन ने वनवास की दीक्षा ली और वन में बारह वर्षो तक रहने के लिये वहाँ से चल पड़े।[2]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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| भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन
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| भीम और वकासुर का युद्ध
| वकासुर वध से भयभीत राक्षसों का पलायन
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पाण्डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना
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| राजा संवरण का सूर्य कन्या तपती पर मोहित होना
| तपती और संवरण की बातचीत
| वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति
| गन्धर्व का ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिए आग्रह करना
| वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के आगे विश्वामित्र का पराभव
| शक्ति के शाप से कल्माषपाद का राक्षस होना
| कल्माषपाद का शाप से उद्धार
| वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति
| शक्ति पुत्र पराशर का जन्म
| पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण
| और्व और पितरों की बातचीत
| पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति
| कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप
| पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
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| ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना
| स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा
| धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना
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