- महाभारत आदि पर्व के ‘सम्भव पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 134 के अनुसार भीम, दुर्योधन और अर्जुन द्वारा अस्त्र-कौशल के प्रदर्शन की कथा का वर्णन इस प्रकार है।[1]-
विषय सूची
भीम व दुर्योधन का गदा प्रदर्शन करते हुए युद्ध
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! जब कुरुराज दुर्योधन और बलवानों श्रेष्ठ भीमसेन रंगभूमि में उतरकर गदा युद्ध कर रहे थे, उस समय दर्शक जनता उनके प्रति पक्षपात पूर्ण स्नेह करने के कारण मानो दो दलों में बंट गयी थी। कुछ कहते, ‘अहो! वीर कुरुराज कैसा अद्भुत पराक्रम दिखा रहे हैं।’ दूसरे बोल उठते, ‘वाह! भीमसेन तो गजब का हाथ मारते हैं।’ इस तरह की बातें करने वाले लोगों की भारी आबाजें वहाँ सहसा सब ओर गूंजने लगीं। फिर तो सारी रंगभूमि में क्षुब्ध महासागर के समान हल-चल मच गयी। यह देख बुद्धिमान् द्रोणाचार्य ने अपने प्रिय पुत्र अश्वत्थामा से कहा। द्रोण बोले- वत्स! ये दोनों महापराक्रमी वीर अस्त्र-विद्या में अत्यन्त अभ्यस्त हैं। तुम इन दोनों को युद्ध से रोको, जिससे भीमसेन और दुर्योधन को लेकर रंगभूमि में सब ओर क्रोध न फैल जाय।[1]
अश्वत्थामा का युद्ध को रोकना
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर अश्वत्थामा ने बड़े वेग से उठकर भीमसेन और दुर्योधन को रोकते हुए कहा- ‘भीम! तुम्हारे गुरु की आज्ञा है, गान्धारी नन्दन! तुम्हारे आचार्य का आदेश है, तुम दोनों का युद्ध बंद होना चाहिये। तुम दानों ही योग्य हो, तुम्हारा एक-दूसरे के प्रति वेग पूर्वक आक्रमण अवांछनीय है। तुम दोनों का यह दु:साहस अनुचित है। अत: इसे बंद करो।’ इस प्रकार कहकर प्रलय कालीन वायु से विक्षुप्त उत्ताल तरंगों वाले दो समुद्रों की भाँति गदा उठाये हुए दुर्योधन और भीमसेन को गुरु पुत्र अश्वत्थामा ने युद्ध से रोक दिया।[1]
द्रोण द्वारा अर्जुन की प्रसंसा
तत्पश्चात् द्रोणाचार्य ने महान् मेघों के समान कोलाहल करने वाले बाजों को बंद करवाकर रंगभूमि में उपस्थित हो यह बात कही-। ‘दर्शकगण! जो मुझे पुत्र से भी अधिक प्रिय है, जिसने सम्पूर्ण शस्त्रों में निपुणता प्राप्त की है तथा जो भगवान् नारायण के समान पराक्रमी है, उस इन्द्र कुमार कुन्ती पुत्र अर्जुन का कौशल आप लोग देखें’। तदनन्तर आचार्य के कहने से स्वस्ति वाचन कराकर तरुणवीर अर्जुन गोह के चमड़े के बने हुए हाथ के दस्ताने पहने, बाणों से भरा तरकस लिये धनुष सहित रंगभूमि में दिखायी दिये। वे श्याम शरीर पर सोने का कवच धारण किये ऐसे सुशोभित हो रहे थे, मानो सूर्य, इन्द्रधनुष, विद्युत और संध्याकाल से युक्त मेघ शोभा पाता हो। फिर तो समूचे रंगमण्डप में हर्षोल्लास छा गया। सब ओर भाँति-भाँति के बाजे और शंक बजने लगे। ‘ये कुन्ती के तेजस्वी पुत्र हैं। ये ही पाण्डु के मझले बेटे हैं। ये देवराज इन्द्र की संतान हैं। ये ही कुरुवंश के रक्षक हैं। अस्त्र-विद्या के विद्वानों में ये सबसे उत्तम हैं। ये धर्मात्मओं और शीलवानों में श्रेष्ठ हैं। शील और ज्ञान की तो ये सर्वोत्तम निधि हैं।’ उस समय दर्शकों से मुख से तुमुल ध्वनि के साथ निकली हुई ये बातें सुनकर कुन्ती के स्तनों से दूध और नेत्रों से स्नेह के आंसू बहने लगे। उन दुग्ध मिश्रित आंसुओं से कुन्तीदेवी का वक्ष:स्थल भीग गया। वह महान् कोलाहल धृतराष्ट्र के कानों में भी गूंजउठा तब नरश्रेष्ठ धृतराष्ट्र प्रसन्नचित्त होकर विदुर से पूछने लगे-। ‘विदुर! विक्षुब्ध महासागर के समान यह कैसा महान् कोलाहल हो रहा है? यह शब्द मानो आकाश को विदीर्ण करता हुआ रंगभूमि में सहसा व्यक्त हो उठा है’।[1]
अर्जुन द्वारा अस्त्र प्रदर्शन
विदुर ने कहा- महाराज! ये पाण्डुनन्दन अर्जुन कवच बांध कर रंगभूमि में उतरे हैं। इसी कारण यह सारी आवाज हो रही है। धृतराष्ट्र बोले- महामते! कुन्ती रूपी अरणि से प्रकट हुए इन तीनों पाण्डव रूपी अग्नियों से मैं धन्य हो गया। इन तीनों के द्वारा मैं सवर्था अनुगृहीत और सुरक्षित हूँ। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! इस प्रकार आनन्दातिरेकसे मुखरित हुआ वह रंगमण्डप जब किसी तरह कुछ शान्त हुआ तब अर्जुन ने आचार्य को अपनी अस्त्र-संचालन की फुर्ती दिखानी आरम्भ की। उन्होंने पहले आग्नेयास्त्र से आग पैदा की, फिर वारुणास्त्र से जल उत्पन्न करके उसे बुझा दिया। वायव्यास्त्र से आंधी चला दी और पर्जन्यास्त्र से बादल पैदा कर दिये। उन्होंने भौमास्त्र से पृथ्वी से पार्वतास्त्र से पर्वतों को उत्पन्न कर दिया; फिर अन्तर्धानास्त्र के द्वारा वे स्वयं अदृश्य हो गये। वे क्षणभर में बहुत लंबे हो जाते औ रक्षणभर में ही बहुत छोटे बन जाते थे। एक क्षण में रथ के धुरे पर खड़े होते तो दूसरे क्षण रथ की बीच में दिखाई देते। फिर पलक मारते-मारते पृथ्वी पर उतरकर अस्त्र-कौशल दिखाने लगते। अपने गुरु प्रिय शिष्य अर्जुन ने बड़ी फुर्ती और खूबसूरती के साथ सुकमार, सूक्ष्य और भारी निशाने को भी बिना हिलाये-डुलाऐ नाना प्रकार के बाणों द्वारा बींध दिया। रंगभूमि में लोहे का बना हुआ सूअर इस प्रकार रक्खा था कि वह सब ओर चक्कर लगा रहा था। उस घूमते हुए सूअर के मुख में अर्जुन ने एक ही साथ एक बाण की भाँति पांच बाण मारे। वे पांचों बाण एक-दूसरे से सटे हुए नहीं थे। एक जगह गाय का सींग एक रस्सी में लटकाया गया था, जो हिल रहा था। महा पराक्रमी अर्जुन ने उस सींग के छेद में लगातार इक्कीस बाण गड़ा दिये। निष्पाप जनमेजय! इस प्रकार उन्होंने बडा़ भारी अस्त्र-कौशल दिखाया। खड्ग, धनुष और गदा आदि के भी शस्त्र कुशल अर्जुन ने अनेक पैतरे और हाथ दिखाये। भारत! इस प्रकार अस्त्र-कौशल दिखाने का अधिकांश कार्य जब समाप्त हो चला, मनुष्यों का कोलाहल बाजे-गाजे का शब्द जब शांत होने लगा, उसी समय दरबाजे की ओर से किसी का अपनी भुजाओं पर ताल ठोकने का भारी शब्द सुनायी पड़ा; मानों वज्र आपस में टकरा रहे हों। वह शब्द किसी वीर के महात्म्य तथा बल का सूचक था। उसे सुनकर लोग कहने लगे ‘कहीं पहाड़ तो नहीं फट गये! पृथ्वी तो नहीं विदीर्ण हो गयी! अथवा जल की धारा से परिपूर्ण घनीभूत बादलों की गंभीर गर्जना से आकाश मण्डल तो नहीं गूंज रहा है?’। राजन्! उस रंगमण्डप में बैठे हुए लोगों के मन में क्षणभर में उपर्युक्त विचार आने लगे। उस समय सभी दर्शक दरबाजे की ओर मुंह घुमाकर देखने लगे। इधर कुन्ती कुमार पांचों भाइयों से घिरे हुए आचार्य द्रोण पांच तारों वाले हस्थ नक्षत्र से संयुक्त चन्द्रमा की भाँति शोभा पा रहे थे। शत्रुहन्तां बलवान दुर्योधन भी उठकर खड़ा हो गया। अश्वत्थामा सहित उसके सौ भाइयों ने आकर उसे चारों ओर से घेर लिया। हाथों में आयुध उठाये खड़े हुए अपने भाइयों से घिरा हुआ गदाधारी दुर्योधन पूर्वकाल में दानव संहार के समय देवताओं से घिरे देवराज इन्द्र के समान शोभा पाने लगा।[2]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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| और्व और पितरों की बातचीत
| पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति
| कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप
| पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
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| राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना
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| कृष्ण-बलराम का वार्तालाप
| अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय
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| अर्जुन द्वारा वर्गा अप्सरा का उद्धार
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| अर्जुन का प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण से मिलना
सुभद्रा हरण पर्व
अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना
| यादवों की अर्जुन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी
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अर्जुन और सुभद्रा का विवाह
| अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना
| द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
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| राजा श्वेतकि की कथा
| अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना
| अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना
| खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा
| देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
मय दर्शन पर्व
खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा
| मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति
| जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना
| जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद
| शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना
| मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना
| इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान
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