राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना

महाभारत आदि पर्व के ‘स्वयंवर पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 186 के अनुसार राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होने की कथा का वर्णन इस प्रकार है[1]-

द्रौपदी को पाने की इच्छा से सभी राजाओं के मन में उत्साह

वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय! ये सब नवयुवक राजा अनेक आभूषणों से विभूषित हो कानों में कुण्‍डल पहने और परस्‍पर लाग-डांट रखते हुए हाथों में अस्‍त्र-शस्‍त्र लिये अपने-अपने आसनों से उठने लगे। उन्‍हें अपने में ही सबसे अस्‍त्रविद्या और बल के होने का अभिमान था; सभी को अपने रुप, पराक्रम, कुल, शील, धन और जवानी-का बड़ा घमंड था। वे सभी मस्‍तक से वेगपूर्वक मद की धारा बहाने वाले हिमाचल प्रदेश के गजराजों की भाँति उन्‍मत्‍त हो रहे थे। वे एक दूसरे को बड़ी स्‍पर्धा से देख रहे थे। उनके सभी अंगों के कामोन्‍माद व्‍याप्‍त हो रहा था। ‘ कृष्‍णा तो मेरी ही होने वाली है’ यह कहते हुए वे अपने राजोचित आसनों से सहसा उठकर खड़े हो गये। रुपदकुमारी को पाने की इच्‍छा से रंगमण्‍डप में एकत्र हुए वे क्षत्रियनरेश गिरिराजनन्दिनी उमा के विवाह में इकटठे हुए देवताओं की भाँति शोभा पा रहे थे। कामदेव के बाणों की चोट से उनके सभी अंगों में निरन्‍तर पीड़ा हो रही थी। उनका मन द्रौपदी में ही लगा हुआ था। द्रुपदकुमारी को पाने के लिये रंग भूमि में उतरे हुए वे सभी नरेश वहाँ अपने सुहद् राजाओं से भी ईर्ष्‍या करने लगे।। इसी समय रुद्र, आदित्‍य, वशु, अश्विनीकुमार, समस्‍त साध्‍यगण तथा मरुद्रण यमराज और कुबेर को आगे करके अपने-अपने विमानों पर बैठकर वहाँ आये। दैत्‍य, सुपर्ण, नाग, देवर्षि, गुह्मक, चारण त‍था विश्वावसु, नारद और पर्वत आदि प्रधान-प्रधान गन्‍धर्व भी अप्‍सराओं को साथ लिये सहसा आ‍काश में उपस्थित हो गये। (अन्‍य राजा लोग द्रौपदी की प्राप्ति के लिये लक्ष्‍य बेधने के विचार में पड़े थे, किंतु) भगवान् श्रीकृष्‍ण की सम्‍मति के अनुसार चलने वाले महान् यदुश्रेष्‍ठ, जिनमें बलराम और श्रीकृष्‍ण आदि वृष्णि और अन्‍धक वंश के प्रमुख व्‍यक्ति वहाँ उपस्थित थे, चुपचाप अपनी जगह पर बैठे-बैठे देख रहे थे।। यदुवंशी वीरों के प्रधान नेता श्रीकृष्‍ण ने लक्ष्‍मी के सम्‍मुख विराजमान गजराजों तथा राख में छिपी हुई आग के समान मतवाले हाथी-की-सी आकृति वाले पाण्‍डवों को, जो अपने सब अंगों में भस्‍म लपेटे हुए थे, देखकर (तुरंत) पहचान लिया।। और बलरामजी से धीरे-धीरे कहा- भैया! वह देखिये, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन और दोनों जुड़वे वीर नकुल-सहदेव उधर बैठे हैं।’ बलरामजी ने उन्‍हें देखकर अत्‍यन्‍त प्रसन्‍न चित्‍त हो भगवान् श्रीकृष्‍ण को ओर द्दष्टिपात किया। दूसरे-दूसरे वीर राजा, राजकुमार एवं राजाओं के पौत्र अपने नेत्रों, मन और स्‍वभाव को द्रौपदी की ओर लगाकर उसी को देख रहे थे, अत: पाण्‍डवों की ओर उनकी द्दष्टि नहीं गयी। वे जोश में आकर दांतों से ओठ चबा रहे थे और रोष से उनकी आंखे लाल हो रही थी। इसी प्रकार वे महाबाहु कुन्‍तीपुत्र तथा दोनों महानुभाव वीर नकुल-सहदेव सब-के-सब द्रौपदी को देखकर तुरंत कामदेव के बाणों से घायल हो गये। राजन्! उस समय वहाँ का आकाश देवर्षियों तथा गन्‍धर्वों से खचाखच भरा था। सुपर्ण, नाग, असुर और सिद्धों का समुदाय वहाँ जुट गया था। सब और दिव्‍य सुगन्‍ध व्‍याप्‍त हो रही थी और दिव्‍य पुष्‍पों की वर्षा की जा रही थी।। वृहत शब्‍द करने वाली दुन्‍दुभियों के नाद से सारा अन्‍तरिक्ष गूंज उठा था। चारों ओर का आकाश विमानों से ठसाठस भरा था और वहाँ बांसुरी, वीणा तथा ढोल की मधुर ध्‍वनि हो रही थी। तदनन्‍तर वे नृपतिगण द्रौपदी के लिये क्रमश: अपना पराक्रम प्रकट करने लगे। कर्ण, दुर्योधन, शाल्‍व, शल्‍य, अश्‍वत्‍थामा, क्राथ, मुनीथ, वक्र, कलिगराज, वगनरेश, पाण्‍डयनरेश, पौण्‍ड्र देश के अधिपति, विदेह के राजा, यवनदेश के अधिपति तथा अन्‍यान्‍य अनेक राष्‍ट्रों के स्‍वामी, बहुतेरे राजा, राजपुत्र तथा राजपौत्र, जिनके नेत्र प्रफुल्‍ल कमलपत्र के समान शोभा पा रहे थे, जिनके विभिन्‍न अंगों में किरीट, हार, अंगद (बाजूबंद) तथा कड़े आदि आभूषण शोभा दे रहे थे तथा जिनकी भुजाएं बड़ी-बड़ी थी, वे सब-के-सब पराक्रमी और धैर्य से युक्‍त हो अपने बल और शक्ति पर गर्जते हुए क्रमश: उस धनुष पर अपना बल दिखाने लगे।[1]

राजाओं का लक्ष्यवेध में असफलता

परंतु वे उस सुदृढ धनुष पर हाथ से कौन कहे, मन से भी प्रत्‍यञ्चा न चढ़ा सके। अपने बल, शिक्षा और गुण के अनुसार उस पर जोर लगाते समय वे सभी नरेन्‍द्र उस सुद्दढ़ एवं चमचमाते हुए धनुष के झटके से दूर फेंक दिये जाते और लड़खड़ाकर धरती पर जा गिरते थे। फिर तो उनका उत्‍साह समाप्‍त हो जाता, किरीट और हार खिसककर गिर जाते और वे लंबी सांसें खींचते हुए शान्‍त होकर बैठ जाते थे। उस सुद्दढ़ धनुष के झटके से जिनके हार, बाजूबंद और कड़े आदि आभूषण दूर जा गिरे थे, वे नरेश उस समय द्रौपदी को पाने की आशा छोड़कर अत्‍यन्‍त व्‍यथित हो हाहाकार कर उठे। उन सब राजाओं की यह अवस्‍था देख धनुर्धारियों में श्रेष्‍ठ कर्ण उस धनुष के पास गया और तुरंत ही उसे उठाकर उस पर प्रत्‍यञ्चा चढ़ा दी और शीघ्र ही उस धनुष पर वे पांचों बाण जोड़ दिये। अग्रि, चन्‍द्रमा और सूर्य से भी अधिक तेजस्‍वी सूर्य-पुत्र कर्ण द्रौपदी के प्रति आसक्‍त होने के कारण जब लक्ष्‍य भेदने की प्रति‍ज्ञा करके उठा, तब उसे देखकर महाधनुर्धर पाण्‍डवों ने यह विश्‍वास कर लिया कि अब यह इस उत्‍तम लक्ष्‍य को भेदकर पृथ्‍वी पर गिरा देगा। कर्ण को देखकर द्रौपदी ने उच्‍च स्‍वर से यह बात कही- ‘मैं सूत जाति के पुरुष का वरण नहीं करुंगी’। यह सुनकर कर्ण ने अमर्षयुक्‍त हंसी के साथ सूर्य की ओर देखा और उस प्रकाशमान धनुष को डाल दिया। इस प्रकार जब वे सभी क्षत्रिय सब ओर से हट गये, तब यमराज के समान बलवान्, घीर, वीर, चेदिराज दमघोषपुत्र महाबुद्धिमान् शिशुपाल धनुष उठाने के लिये चला। परंतु उस पर हाथ लगाते ही वह घुटनों के बल पृथ्‍वी-पर गिर पड़ा। तदनन्‍तर महापराक्रमी एवं महाबली राजा जरांसध धनुष-के निकट आकर पर्वत की भाँति अवि‍चलभाव से खड़ा हो गया। परंतु उठाते समय धनुष का झटका खाकर वह भी घुटने के बल गिर पड़ा। तब वहाँ से उठकर राजा जरासंध अपने राज्‍य को चला गया। तत्‍पश्‍चात् महावीर एवं महाबली मद्रराज शल्‍य आये। पर उन्‍होंने भी उस धनुष को चढ़ाते समय धरती पर घुटने टेक दिये। तदनन्‍तर शत्रुओं का संताप देनेवाले धृतराष्‍ट्र पुत्र महाबली राजा दुर्योधन सहसा अपने भाइयों के बीच से उठकर खड़ा हो गया। उनके अस्‍त्र-शस्‍त्र बड़े मजबूत थे। वह स्‍वाभिमानी होने के साथ ही समस्‍त राजोचित लक्षणों से सम्‍पन्‍न था। द्रौपदी को देखकर उसका हृदय हर्ष से खिल उठा और वह शीघ्रतापूर्वक धनुष के पास आया। उस धनुष को हाथ में लेकर वह चापधारी इन्‍द्र के समान शोभा पाने लगा। राजा दुर्योधन उस मजबूत धनुष पर जब प्रत्‍यञ्चा चढ़ाने लगा, उस समय उसके अंगुलियों के बीच में झटके से ऐसी चोट लगी कि वह चित्‍त लोट गया। धनुष की चोट खाकर दुर्योधन अत्‍यन्‍त लज्जित होता हुआ-सा अपने स्‍थान पर लौट गया।। (जब इस प्रकार बड़े-बड़े़ प्रभावशाली राजा लक्ष्‍यवेध न कर सके, तब) सारा समाज सम्‍भ्रम (घबराहट) में पड़ गया और लक्ष्‍यवेध की बातचीत तक बंद हो गयी, उसी समय प्रमुख वीर कुन्‍तीनन्‍दन अर्जुन ने उस धनुष पर प्रत्‍यञ्चा चढ़ाकर उस पर बाण-संधान करने की अभिलाषा की। यह देख देवता और दानवों के आदरणीय, वृष्णिवंश के प्रमुख वीर उदारबुद्धि भगवान् श्रीकृष्‍ण बलरामजी के साथ उनका हाथ दबाते हुए बड़े प्रसन्‍न हुए। उन्‍हें यह विश्‍वास हो गया कि द्रौपदी अब पाण्‍डुनन्‍दन अर्जुन के हाथ में आ गयी। पाण्‍डवों ने अपना रुप छिपा रक्‍खा था, अत: दूसरे कोई राजा या प्रमुख वीर उन्‍हें पहचान न सके।[2]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 186 श्लोक 1-17
  2. महाभारत आदि पर्व अध्याय 186 श्लोक 18-30

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जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव | धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा | दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना | पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश | वारणावत में पाण्डवों का स्वागत | लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत | विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण | लाक्षागृह का दाह | विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना | हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश | कुन्ती के लिए भीम का जल लाना | माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना | भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध | हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना | भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध | युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना | हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना | भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन | घटोत्कच की उत्पत्ति | पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
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चैत्ररथ पर्व
पाण्डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना | द्रोण का द्रुपद द्वारा अपमानित होने का वृत्तांत | द्रुपद के यज्ञ से धृष्टद्युम्न और द्रौपदी का जन्म | कुन्ती का पांचाल देश में जाना | व्यासजी का पाण्डवों से द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनाना | पाण्डवों की पांचाल यात्रा | अर्जुन द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं दोनों की मित्रता | राजा संवरण का सूर्य कन्या तपती पर मोहित होना | तपती और संवरण की बातचीत | वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति | गन्धर्व का ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिए आग्रह करना | वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के आगे विश्वामित्र का पराभव | शक्ति के शाप से कल्माषपाद का राक्षस होना | कल्माषपाद का शाप से उद्धार | वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति | शक्ति पुत्र पराशर का जन्म | पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण | और्व और पितरों की बातचीत | पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति | कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप | पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत | ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना | स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा | धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना | राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना | अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना | भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा | कृष्ण-बलराम का वार्तालाप | अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय | द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना | कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत | पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह | श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट | धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना | द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना | पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान | द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन | द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार | व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना | द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना | द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह | कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व
पाण्डवों के विवाह से दुर्योधन को चिन्ता | धृतराष्ट्र का पाण्डवों के प्रति प्रेम का दिखावा | धृतराष्ट्र-दुर्योधन की बातचीत, शत्रुओं को वश में करने के उपाय | पाण्डवों को पराक्रम से दबाने के लिए कर्ण की सम्मति | भीष्म की दुर्योधन से पाण्डवों को आधा राज्य देने की सलाह | द्रोणाचार्य की पाण्डवों को उपहार भेजने की सम्मति | विदुर की सम्मति, द्रोण-भीष्म के वचनों का समर्थन | धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर का द्रुपद के पास जाना | पाण्डवों का हस्तिनापुर आना | इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण | श्रीकृष्ण-बलरामजी का द्वारका प्रस्थान | पाण्डवों के यहाँ नारदजी का आगमन | नारद द्वारा सुन्द-उपसुन्द कथा का प्रस्ताव | सुन्द-उपसुन्द की तपस्या | सुन्द-उपसुन्द द्वारा त्रिलोक विजय | तिलोत्तमा की उत्पत्ति एवं सुन्दोपसुन्द को मोहित करने हेतु प्रस्थान | तिलोत्तमा की वजह से सुन्द-उपसुन्द में लड़ाई | तिलोत्तमा को ब्रह्माजी द्वारा वरदान | पाण्डवों का द्रौपदी के विषय में नियम-निर्धारण
अर्जुन वनवास पर्व
अर्जुन द्वारा गोधन की रक्षा के लिए नियम-भंग | अर्जुन का गंगाद्वार में रुकना एवं उलूपी से मिलन | अर्जुन का मणिपूर में चित्रांगदा से पाणिग्रहण | अर्जुन द्वारा वर्गा अप्सरा का उद्धार | वर्गा की आत्मकथा | अर्जुन का प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण से मिलना
सुभद्रा हरण पर्व
अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना | यादवों की अर्जुन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी
हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह | अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना | द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
खाण्डव दाह पर्व
युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता | अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना | राजा श्वेतकि की कथा | अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना | अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना | खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा | देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
मय दर्शन पर्व
खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा | मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति | जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना | जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद | शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना | मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना | इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान

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