विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीप्रवचन 34गोपियों में दास्य का हेतु-3
यह गोपी और कृष्ण का सम्वाद है। रासलीला में कृष्ण ने कहा कि तुम लोग अपने धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, चारों पुरुषार्थ के अनुरूप आचरण करो, चारों को प्राप्त करो, लोक-परलोक और परमार्थ बढ़ाओ। अर्थ और काम इस लोक के लिए आवश्यक हैं। धन भी चाहिए और भोग भी चाहिए; परंतु वे होने चाहिए धर्म से नियंत्रित; और जब अर्थ और भोग-दोनों धर्म के लिए लगा दिए जाते हैं तब ये परलोक के साधन बन जाते हैं; और यदि निष्काम होवें तो धर्म अंतःकरण को शुद्ध करके मोक्ष के योग्य बना देता है। मोक्ष परमपुरुषार्थ हैं। एक सज्जन कहते थे कि जैसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चार पुरुषार्थ हैं, वैसे शक्ति भी एक पुरुषार्थ है, हम शक्तिशाली बने। हमारे पास शरीर में बल हो, सेना का बल हो, आत्म-बल हो। यः आत्मदा बलदा- ये शब्द वेद में आते हैं; भगवान् बल भी देते हैं। परंतु शक्ति या बल स्वतंत्र पुरुषार्थ नहीं हो सकता, क्योंकि बल तो किसी पुरुषार्थ की प्राप्ति के लिए चाहिए ही, बल नहीं होगा तो मनुष्य न तो धर्म पर दृढ़ रह सकेगा, न धन कमा सकेगा, न भोग कर सकेगा और न मोक्ष प्राप्त कर सकेगा। बल तो चारों पुरुषार्थों में साधारण साधन है। सिद्धि भी अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष के ही काम आती है, अतः सिद्धि कोई स्वतंत्र पुरुषार्थ नहीं है। पर गोपियाँ कहती हैं कि न तो हमें धर्म चाहिए, न अर्थ चाहिए, न भोग चाहिए न मोक्ष चाहिए, हमको तो पाँचवाँ पुरुषार्थ प्रेम चाहिए। गौड़ेश्वर सम्प्रदाय में भक्त लोग पुरुषार्थ पाँच मानते हैं; पाँचवाँ पुरुषार्थ है, भगवत्-प्रेम। भगवान् का प्रेम धर्म से, अर्थ से, भोग से, मोक्ष से सबसे ऊपर है। संसार का प्रेम तो भोग के लिए होता है, कमाई के लिए होता है या धर्म के लिए होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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