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− | [[देवहूति]] ने (फिर) कहा- ‘उस भक्ति का वर्णन कीजिये, जिससे भगवद्धाम में निवास प्राप्त होता है और वह भक्ति किस प्रकार करनी चाहिये, यह भी मुझे बता दीजिये।’ [[कपिल|कपिल जी]] ने कहा- ‘माता! भक्ति चार प्रकार की होती है- सत्त्वगुणमयी, रजोगुणमयी, तमोगुणमयी और शुद्ध रूप की। फिर वह एक ही भक्ति बहुत प्रकार की हो जाती है, जैसे जल में रंग मिलने से अनेक प्रकार के रंग हो जाते हैं। सात्त्विक भक्ति करने वाला मुक्ति चाहता है। रजोगुणमयी भक्ति करने वाले की धन और कुटुम्ब में आसक्ति होती है। तमोगुणी इस प्रकार की कामना करता है कि ‘मेरा शत्रु किसी प्रकार भी मर जाय।’ शुद्ध भक्ति करने वाला केवल मुझको ही चाहता है, वह मुक्ति का भी अवगाहन (भक्ति की भी कामना) नहीं करता। वह मन, कर्म और वाणी से मेरी सेवा करता है, मन से सब आशाओं को त्याग देता हैं ऐसा भक्त मुझे सदा प्यारा है, मैं उससे एक क्षण भी अलग नहीं रहता। उसे जो हित है (जिसमें वह अपना लाभ मानता है) वही मेरा होता है। उसके समान मेरा (प्रिय) और कोई नहीं है। मेरे जो तीन प्रकार के (सात्त्विक, राजस और तामस) भक्त हैं, वे जो कुछ माँगते हैं, उन्हें मैं वही देता हूँ, किंतु अनन्य भक्त मुझसे कुछ नहीं माँगता, इसलिये मुझे अत्यन्त संकोच लगता है। ऐसा भक्त उत्तम ज्ञानी होता | + | [[देवहूति]] ने (फिर) कहा- ‘उस भक्ति का वर्णन कीजिये, जिससे भगवद्धाम में निवास प्राप्त होता है और वह भक्ति किस प्रकार करनी चाहिये, यह भी मुझे बता दीजिये।’ [[कपिल|कपिल जी]] ने कहा- ‘माता! भक्ति चार प्रकार की होती है- सत्त्वगुणमयी, रजोगुणमयी, तमोगुणमयी और शुद्ध रूप की। फिर वह एक ही भक्ति बहुत प्रकार की हो जाती है, जैसे जल में रंग मिलने से अनेक प्रकार के रंग हो जाते हैं। सात्त्विक भक्ति करने वाला मुक्ति चाहता है। रजोगुणमयी भक्ति करने वाले की धन और कुटुम्ब में आसक्ति होती है। तमोगुणी इस प्रकार की कामना करता है कि ‘मेरा शत्रु किसी प्रकार भी मर जाय।’ शुद्ध भक्ति करने वाला केवल मुझको ही चाहता है, वह मुक्ति का भी अवगाहन (भक्ति की भी कामना) नहीं करता। वह मन, कर्म और वाणी से मेरी सेवा करता है, मन से सब आशाओं को त्याग देता हैं ऐसा भक्त मुझे सदा प्यारा है, मैं उससे एक क्षण भी अलग नहीं रहता। उसे जो हित है (जिसमें वह अपना लाभ मानता है) वही मेरा होता है। उसके समान मेरा (प्रिय) और कोई नहीं है। मेरे जो तीन प्रकार के (सात्त्विक, राजस और तामस) भक्त हैं, वे जो कुछ माँगते हैं, उन्हें मैं वही देता हूँ, किंतु अनन्य भक्त मुझसे कुछ नहीं माँगता, इसलिये मुझे अत्यन्त संकोच लगता है। ऐसा भक्त उत्तम ज्ञानी होता है उसके शत्रु और मित्र कोई नहीं होता। [[हरि|श्री हरि]] की माया सारे जगत् को कष्ट दिया करती है, किंतु उसे माया-मोह नहीं व्यापता (उस पर प्रभाव नहीं डालता)।’ (यह सुनकर माता देवहूति ने कहा-) ‘कपिल जी! श्री हरि के निज (वास्तविक) स्वरूप का वर्णन कीजिये और फिर यह बताइये कि उनकी माया का क्या स्वरूप है?’ जब [[देवहूति]] ने इस प्रकार पूछा तब उनके प्रश्न को सुन कर कपिल देव जी को अत्यन्त आनन्द प्राप्त हुआ। वे बोले- ‘[[हरि|श्री हरि]] के भय से ही सूर्य-चन्द्र घूमते हैं और (उनके भय से ही) [[वायु]] अतिशय वेग नहीं बढ़ाता। जिसके भय से अग्नि (विश्व को) जला नहीं देता, वे ही श्री हरि हैं जिनके वश में माया है। माया को त्रिगुणात्मि का समझो। |
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01:20, 24 मार्च 2018 के समय का अवतरण
सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग नट
देवहूति ने (फिर) कहा- ‘उस भक्ति का वर्णन कीजिये, जिससे भगवद्धाम में निवास प्राप्त होता है और वह भक्ति किस प्रकार करनी चाहिये, यह भी मुझे बता दीजिये।’ कपिल जी ने कहा- ‘माता! भक्ति चार प्रकार की होती है- सत्त्वगुणमयी, रजोगुणमयी, तमोगुणमयी और शुद्ध रूप की। फिर वह एक ही भक्ति बहुत प्रकार की हो जाती है, जैसे जल में रंग मिलने से अनेक प्रकार के रंग हो जाते हैं। सात्त्विक भक्ति करने वाला मुक्ति चाहता है। रजोगुणमयी भक्ति करने वाले की धन और कुटुम्ब में आसक्ति होती है। तमोगुणी इस प्रकार की कामना करता है कि ‘मेरा शत्रु किसी प्रकार भी मर जाय।’ शुद्ध भक्ति करने वाला केवल मुझको ही चाहता है, वह मुक्ति का भी अवगाहन (भक्ति की भी कामना) नहीं करता। वह मन, कर्म और वाणी से मेरी सेवा करता है, मन से सब आशाओं को त्याग देता हैं ऐसा भक्त मुझे सदा प्यारा है, मैं उससे एक क्षण भी अलग नहीं रहता। उसे जो हित है (जिसमें वह अपना लाभ मानता है) वही मेरा होता है। उसके समान मेरा (प्रिय) और कोई नहीं है। मेरे जो तीन प्रकार के (सात्त्विक, राजस और तामस) भक्त हैं, वे जो कुछ माँगते हैं, उन्हें मैं वही देता हूँ, किंतु अनन्य भक्त मुझसे कुछ नहीं माँगता, इसलिये मुझे अत्यन्त संकोच लगता है। ऐसा भक्त उत्तम ज्ञानी होता है उसके शत्रु और मित्र कोई नहीं होता। श्री हरि की माया सारे जगत् को कष्ट दिया करती है, किंतु उसे माया-मोह नहीं व्यापता (उस पर प्रभाव नहीं डालता)।’ (यह सुनकर माता देवहूति ने कहा-) ‘कपिल जी! श्री हरि के निज (वास्तविक) स्वरूप का वर्णन कीजिये और फिर यह बताइये कि उनकी माया का क्या स्वरूप है?’ जब देवहूति ने इस प्रकार पूछा तब उनके प्रश्न को सुन कर कपिल देव जी को अत्यन्त आनन्द प्राप्त हुआ। वे बोले- ‘श्री हरि के भय से ही सूर्य-चन्द्र घूमते हैं और (उनके भय से ही) वायु अतिशय वेग नहीं बढ़ाता। जिसके भय से अग्नि (विश्व को) जला नहीं देता, वे ही श्री हरि हैं जिनके वश में माया है। माया को त्रिगुणात्मि का समझो। |
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