छो (Text replacement - "| [[चित्र:Next.png|" to "| style="vertical-align:bottom;"| [[चित्र:Next.png|") |
छो (Text replacement - "पुरूष" to "पुरुष") |
||
पंक्ति 13: | पंक्ति 13: | ||
वेदांतवाद के मत से कर्म केवल भोतिक फल और निम्न कोटि का स्वर्ग देने वाले हैं; इसलिये कर्मो का त्याग करना ही होगा। गीता इस विरोध का समाधान इस सिद्धांत के प्रतिपादन से करती है कि ये देवता एक ही देव के, ईश्वर के, सब योगों, उपासनाओं, यज्ञों और तपों के परमेश्वर के ही केवल अनेक रूप हैं, और यदि यह सच है कि देवताओ को दिया हुआ हव्य भौतिक फल और स्वर्ग को देने वाला है, तो यह भी सच है कि ईश्वर- प्रीत्यर्थ किया हुआ यज्ञ इनसे परे ले जाने वाला और महान् मोक्ष देने वाला होता है। क्योंकि परमेश्वर और अक्षर ब्रह्म दो अलग-अलग सत्ताएं नहीं हैं, बल्कि दोनों एक ही हैं और इसलिये जो कोई इनमें से किसी को भी पाने की कोशिश करता है वह उसी एक भागवत सत्ता को पाने की कोशिश करता है। समस्त कर्म ज्ञान में परिसमाप्त होते हैं, कर्म बाधा नहीं है, बल्कि परम ज्ञान के साधन हैं। | वेदांतवाद के मत से कर्म केवल भोतिक फल और निम्न कोटि का स्वर्ग देने वाले हैं; इसलिये कर्मो का त्याग करना ही होगा। गीता इस विरोध का समाधान इस सिद्धांत के प्रतिपादन से करती है कि ये देवता एक ही देव के, ईश्वर के, सब योगों, उपासनाओं, यज्ञों और तपों के परमेश्वर के ही केवल अनेक रूप हैं, और यदि यह सच है कि देवताओ को दिया हुआ हव्य भौतिक फल और स्वर्ग को देने वाला है, तो यह भी सच है कि ईश्वर- प्रीत्यर्थ किया हुआ यज्ञ इनसे परे ले जाने वाला और महान् मोक्ष देने वाला होता है। क्योंकि परमेश्वर और अक्षर ब्रह्म दो अलग-अलग सत्ताएं नहीं हैं, बल्कि दोनों एक ही हैं और इसलिये जो कोई इनमें से किसी को भी पाने की कोशिश करता है वह उसी एक भागवत सत्ता को पाने की कोशिश करता है। समस्त कर्म ज्ञान में परिसमाप्त होते हैं, कर्म बाधा नहीं है, बल्कि परम ज्ञान के साधन हैं। | ||
− | इस प्रकार इस विरोध का भी यज्ञ शब्द के अर्थ को व्यापक दृष्टि से सुस्पष्ट करके समाधान किया गया है। यथार्थ में यह विरोध योग और सांख्य का जो बड़ा विरोध है उसी का संक्षिप्त रूप है; वेदवाद योग का ही एक विशिष्ट और मर्यादित रूप है; और वेदांतियों का सिद्धांत हू-ब-हू सांख्यों के सिद्धांत जैसा ही है क्योंकि दोनों के लिये ही मोक्ष प्राप्त करने की साधना है बुद्धि का प्रकृति की भेदत्माक शक्तियों से, अहंकार, मन और इन्द्रियों से से तथा आंतरिक और बाह्म विषयों से निवृत्त होकर निर्विशेष और अक्षर | + | इस प्रकार इस विरोध का भी यज्ञ शब्द के अर्थ को व्यापक दृष्टि से सुस्पष्ट करके समाधान किया गया है। यथार्थ में यह विरोध योग और सांख्य का जो बड़ा विरोध है उसी का संक्षिप्त रूप है; वेदवाद योग का ही एक विशिष्ट और मर्यादित रूप है; और वेदांतियों का सिद्धांत हू-ब-हू सांख्यों के सिद्धांत जैसा ही है क्योंकि दोनों के लिये ही मोक्ष प्राप्त करने की साधना है बुद्धि का प्रकृति की भेदत्माक शक्तियों से, अहंकार, मन और इन्द्रियों से से तथा आंतरिक और बाह्म विषयों से निवृत्त होकर निर्विशेष और अक्षर पुरुष मे वापस लौट आना। विभिन्न मतों का समन्वय साधन करने की इस बात को ध्यान में रखकर ही भगवान् गुरू ने यज्ञविषयक अपने सिद्धांत के कथन का उपक्रम किया है, परंतु इस संपूर्ण कथन में सर्वत्र, यहां तक कि एकदम आरंभ से ही, उनका ध्यान यज्ञ और कर्म के मार्यादित वैदिक अर्थ पर नहीं बल्कि उनकी उदार ओर व्यापक व्यवहार्यता पर रहा है गीता की दृष्टि सदां इन मतों की मर्यादित और ब्राह्म धारणाओं को विस्तृत करने और इन्होनें जिन महान बहुप्रचलित सत्यों को सीमित रूप दे रखा है उन्हें उनके सत्य स्वरूप मे प्रकट करने पर रही है। |
| style="vertical-align:bottom;"| [[चित्र:Next.png|link=गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 110]] | | style="vertical-align:bottom;"| [[चित्र:Next.png|link=गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 110]] | ||
|} | |} |
01:03, 20 जून 2016 का अवतरण
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज