सुजान-रसखान पृ. 21

सुजान-रसखान

रूप-माधुरी

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सवैया

देखिक रास महाबन को इस गोपवधू कह्यौ एक बनू पर।
देखति हौ सखि मार से गोप कुमार बने‍ जितने ब्रज-भू पर।
तीछें निटारि लखौ रसखानि सिंगार करौ किन कोऊ कछू पर।
फेरि फिरैं अँखियाँ ठहराति हैं कारे पितंबर वारे के ऊपर।।45।।

दमकैं रवि कुंडल दामिने से धुरवा जिमि गोरज राजत है।
मुकताहल वारन गोपन के सु तौ बूँदन की छबि छाजत है।
ब्रजबाल नदी उमही रसखानि मयंकबधू दुति लाजत है।
यह आवन श्री मनभावन की बरषा जिमि आज बिराजत है।।46।।

मोर किरीट नवीन लसै मकराकृत कुंडल लोल की डोरनि।
ज्‍यों रसखान घने घन में दमकै बिबि दामिनि चाप के छोरनि।
मारि है जीव तो जीव बलाय बिलोक बजाय लौंनन की को‍रनि।
कौन सुभाय सों आवत स्‍याम बजावत बैनु नचावत मौरनि।।47।।

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