सुजान-रसखान पृ. 114

सुजान-रसखान

गंगा महिमा

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सवैया

इक ओर किरीट लसै दुसरी दिसि नागन के गन गाजत री।
मुरली मधुरी धुनि आधिक ओठ पै आधिक नंद से बाजत री।
रसखानि पितंबर एक कंधा पर एक वाघंबर राजत री।
कोउ देखउ संगम लै बुड़की निकसे यहि मेख सों छाजत री।।254।।

बैद की औषध खाइ कछू न करै बहु संजम री सुनि मोसें।
तो जल-पान कियौ रसखानि सजीवन जानि लियौ रस तोसें।
ए री सुधामई भागीरथी नित पथ्‍य अपथ्‍य बनै तोहिं पोसें।
आक धतूरो चबात फिरै बिख खात फिरै सिब तेरै भरोसे।।255।।

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