सवैया
लाल की आज छटी ब्रज लोग अनंदित नंद बढ़्यौ अन्हवावत।
चाइन चारु बधाइन लै चहुं और कुटुंब अघात न यावत।
नाचत बाल बड़े रसखान छके हित काहू के लाज न आवत।
तैसोइ मात पिताउ लह्यौ उलह्यो कुलही कुल ही पहिरावत।।29।।
'ता' जसुदा कह्यो धेनु की ओठ ढिंढोरत ताहि फिरैं हरि भूलैं।
ढूँवनि कूँ पग चारि चलै मचलैं रज मांहि विथूरि दुकूलैं।
हेरि हँसे रसखान तबै उर भाल तैं टारि कै बार लटूलैं।
सो छवि देखि अनंदन नंदजू अंगन अंग समात न कूलैं।।30।।