कवित्त
वारति जा पर ज्यौ न थकै चहुँ ओर जिती नृप ती धरती है।
मान सखै धरती सों कहाँ जिहि रूप लखै रति सी रती है।
जा रसखान बिलोकन काजू सदाई सदा हरती बरती है।
तो लगि ता मन मोहन कौं अँखियाँ निसि द्यौस हहा करती है।।205।।
मान की औधि है आधी घरी अरी जौ रसखानि डरै हित कें डर।
कै हित छोड़िये पारियै पाइनि ऐसे कटाछन हीं हियरा-हर।।
मोहनलाल कों हाल बिलोकियै नेकु कछू किनि छ्वै कर सों कर।
ना करिबे पर वारे हैं प्रान कहा करि हैं अब हाँ करिबे पर।।206।।