सवैया
दोउ कानन कुंडल मोरपखा सिर सोहै दुकूल नयो चटको।
मनिहार गरे सुकुमार धरे नट-भेस अरे पिय को टटको।
सुभ काछनी बैजनी पावन आवन मैन लगै झटको।
वह सुंदर को रसखानि अली जु गलीन मैं आइ अबैं अटको।।48।।
काटे लटे की लटी लकुटी दुपटी सुफटी सोउ आधे कँधाहीं।
भावते भेष सबै रसखान न जानिए क्यों अँखियाँ ललचाहीं।
तू कछू जानत या छबि कों यह कौन है साँबरिया बनमाहीं।
जोरत नैंन मरोरत भौंह निहोरत सैन अमेठत बाँही।।49।।
कैसो मनोहर बानक मोहन सोहन सुंदर काम ते आली।
जाहि बिलोकत लाज तजी कुल छूटो है नैननि की चल आली।
अधरा मुस्कान तरंग लसै रसखनि सुहाइ महाछबि छाली।
कुंज गली मधि मोहन सोहन देख्यौ सखी वह रूप-रसीली॥50॥