सुजान-रसखान पृ. 20

सुजान-रसखान

रूप-माधुरी

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सवैया

लाल लसै सब के सबके पट कोटि सुगंधनि भीने।
अंगनि अंग सजे सब ही रसखानि अनेक जराउ नवीने।
मुकता गलमाल लसै सब ग्‍वार कुवार सिंगार सो कीने।
पै सिगरे ब्रज के हरि ही हरि ही कै हरैं हियरा हरि लीने।।42।।

वह घेरनि धेनु अबेर सबेरनि फेरीन लाल लकुट्टनि की।
वह तीछन चच्‍छु कटाछन की छबि मोरनि भौंह भृकुट्टनि की।।
वह लाल की चाल चुभी चित मैं रसखानि संगीत उघुट्टनि की।
वह पीत पटक्‍कनि की चटकानि लटक्‍कनि मोर मुकुट्टनि की।।43।।

साँझ समै जिहि देखति ही तिहि पेखन कौं मन मौं ललकै री।
ऊँची अटान चढ़ी ब्रजबाम सुलाज सनेह दुरै उझकै री।।
गोधन धूरि की धूंधरि मैं तिनकी छबि यौं रसखानि तकै री।
पावक के गिरि तें बुधि मानौ चुँवा-लपटी लपकै ललटै री।।44।।

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