श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
दूसरा अध्याय
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं
समुद्रमाप: प्रविशन्ति यद्वत् ।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥70॥
जैसे सब ओर से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में (नद-नदियों के) जल (उसमें कुछ भी क्षोभ पैदा न करके) समा जाते हैं, वैसे ही जिस पुरुष में सारे भोग (बिना विकार उत्पन्न किये ही) समा जाते हैं, वही शान्ति को प्राप्त होता है, भोगों की कामनावाला नहीं! ।।70।।
यथा आत्मना एव आपूर्णमाणम् एकरूपं समुद्रं नादेया आपः प्रविशन्ति, आसाम् अपां प्रवेशे अपि अप्रवेशे वा समुद्रो न कञ्जन विशेषम् आपद्यते। एवं सर्वे कामाः शब्दानि विषया यं संयमिनं प्रविशन्ति इन्द्रिय गोचरतां यान्ति स शान्तिम् आप्रोति। शब्दादिषु इन्द्रियगोचरताम् आपन्नेषु आनापन्नेषु च स्वात्मावलोकनतृप्त्या एव यो न विकारम् आप्नोति स एव शान्तिम् आप्नोति इत्यर्थः; न कामकामी, यः शब्दादिभि र्विक्रियते स कदाचिद् अपि न शान्तिम् आप्नोति ।।70।।
जैसे अपने-आप से परिपूर्ण एकरूप समुद्र में नदियों के जल प्रवेश करते हैं, उनके जलों के प्रवेश करने या न करने से समुद्र किसी भी विशेषता को नहीं प्राप्त होता, वैसे ही समस्त काम-शब्दादि विषय जिस संयमी पुरुष में प्रवेश कर जाते हैं- उसकी इन्द्रियों के द्वारा सेवन किये जाते हैं, वह शान्ति पाता है। अभिप्राय यह कि इन्द्रियों के द्वारा शब्दादि विषयों का सेवन किये जाने और न किये जाने में भी, जो पुरुष अपने आत्मसाक्षात्कार से सदा तृप्त रहने के कारण विकार को प्राप्त नहीं होता, वही शान्ति को प्राप्त करता है, भोगों की कामना करने वाला नहीं, अर्थात् जो शब्दादि विषयों के द्वारा विकार को प्राप्त होता है, वह कभी भी शान्ति को नहीं पाता ।। 70।।
विहाय कामान् य: सर्वान्पुमांश्चरति नि:स्पृह:।
निर्ममो निरहंकार: स शान्तिमधिगच्छति ॥71॥
जो सब विषयों को छोड़कर, उनमें निःस्पृह होकर तथा ममता और अभिमान से रहित होकर विचरता है, वह शान्ति को प्राप्त होता है।। 71।।
काम्यन्ते इति कामाः शब्दादयो विषयाः। यः पुमान् शब्दादीन् सर्वान् विषयान् विहाय तत्र निःस्पृहः ममतारहितश्च अनात्मनि देहे आत्माभिमानरहितः चरति स आत्मानं दृष्ट्वा शान्तिम् अधिगच्छति।। 71।।
जिनकी कामना की जाय, उनका नाम काम है, इस व्युत्पत्ति के अनुसार शब्दादि विषयों (भोगों)- को काम कहते हैं। जो पुरुष शब्दादि सब विषयों को छोड़कर उनमें निःस्पृह और ममता रहित होकर एवं अनात्मा शरीर में आत्माभिमान से रहित होकर आचरण करता है, वह आत्मा का साक्षात्कार करके शान्ति को प्राप्त हो जाता है।।71।।
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