श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
अठारहवाँ अध्याय
यज्ञदानतप:कर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्॥5॥
यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्यागने योग्य नहीं हैं; बल्कि वे तो करने योग्य ही हैं (क्योंकि) यज्ञ, दान और तप बुद्धिमानों को भी पवित्र करने वाले हैं।।5।।
यज्ञदानतपः प्रभृति वैदिकं कर्म मुमुक्षुणा न कदाचिद् अपि त्याज्यम्; अपि तु आप्रयाणाद् अहरहः कार्यम् एव; कुतः? यज्ञदानतपःप्रभृतीनि वर्णाश्रमसम्बन्धीनि कर्माणि मनीषिणां मननशीलानां पावनानि। मननम् उपासनम्। मुमुक्षूणां यावज्जीवम् उपासनं कुर्वताम् उपासननिष्पत्तिविरोधिप्राचीनकर्मविनाशनानि इत्यर्थः।।5।।
यज्ञ, दान और तप आदि वैदिक कर्म मुमुक्षु पुरुषों के लिये कदापि त्याज्य नहीं हैं, प्रत्युत मरणकालपर्यन्त नित्यप्रति कर्तव्य हैं। क्योंकि मनीषी- मनन करने वाले पुरुषों के लिये यज्ञ, दान और तप आदि वर्णाश्रमसम्बन्धी कर्म पवित्र करने वाले होते हैं। मनन उपासना को कहते हैं। अभिप्राय यह है कि जीवन पर्यन्त उपासना करने वाले मुमुक्षु पुरुषों के लिये ये कर्म उपासना की सिद्धि के विरोधी सम्पूर्ण प्राचीन कर्मों का नाश करने वाले हैं।।5।।
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