श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
अठारहवाँ अध्याय
निश्चयं श्रृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम।
त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविध: सम्प्रकीर्तित: ॥4॥
भरतकुल में श्रेष्ठ! पुरुषसिंह अर्जुन! उस त्याग में अब तू मेरा निश्चय सुन। क्योंकि त्याग तीन प्रकार का कहा गया है।।4।।
तत्र एवं वादिविप्रतिपन्ने त्यागे त्यागविषयं निश्चयं मे मत्तः श्रृणु। त्यागः क्रियमाणेषु एव वैदिकेषु कर्मसु फलविषयतया, कर्मविषयतया, कर्तृत्वविषयतया च पूर्वम् एव हि मया त्रिविधः सम्प्रकीर्तितः-‘मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्याध्यात्मचेतसा। निराशीर्निममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः।।’[1] इति।
इस प्रकार त्याग के विषय में विभिन्न मतावलम्बी वादियों की परस्पर-विभिन्न धारणाएँ हैं; इसलिये इस ‘त्याग’ विषयक निश्चय (सिद्धान्त)-को तू मुझसे सुन। किये जाने वाले वैदिक कर्मों का ही फलविषयक, कर्मविषयक और कर्तृत्वविषयक-ऐसे तीन प्रकार का त्याग मैंने पहले ही इस प्रकार बतलाया है- ‘मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्याध्यात्म चेतसा। निराशीनिर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः।।’
कर्मजन्यं स्वर्गादिकं फलं मम न स्याद् इति फलत्यागः। मदीयफल साधनतया मदीयम् इदं कर्म इति कर्माणि ममतायाः परित्यागः कर्म विषयः त्यागः; सर्वेश्वरे कर्तृत्वानु सन्धानेन आत्मनः कर्तृतात्यागः कर्तृत्वविषयः त्यागः।।4।।
कर्म से होने वाले स्वर्गादि फल मुझे न मिलें, इस भावना का नाम फलत्याग है। ‘मेरे फल का साधन होने से यह कर्म मेरा है’ इस प्रकार कर्म में होने वाली ममता का परित्याग कर्मविषयक त्याग है। तथा जो सर्वेश्वर परमेश्वर को कर्ता समझकर अपने कर्तापन का त्याग है, वह कर्तृत्वविषयक त्याग है।।4।।
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