श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
दूसरा अध्याय
किं च परमपुरुषश्च इदानीन्तनगुरुपरम्परा च अद्वितीयात्मस्वरूपनिश्चये सति अनुवर्तमाने अपि भेदज्ञाने स्वनिश्चयानुरूपम् अद्वितीयम् आत्मज्ञानं कस्मै उपदिशति इति वक्तव्यम्।
इसके अतिरिक्त उन (भेदवाद को अज्ञानजनित मानने वालों)- को यह भी बतलाना चाहिये कि परमपुरुष और आज तक की गुरुपरम्परा- ये सब अद्वितीय आत्मस्वरूप का निश्चय हो जाने के उपरान्त कल्पित भेदज्ञान के रहने पर भी अपने निश्चय के अनुसार अद्वितीय आत्मज्ञान का उपदेश किसके प्रति करते हैं?
प्रतिबिम्बवत्प्रतीयमानेभ्यः अर्जुनादिभ्यः इति चेत्, न एतद् उपपद्यते; न हि अनुन्मत्तः कोऽपि मणिकृपाणदर्पणादिषु प्रतीयमानेषु स्वात्मप्रतिबिम्बेषु तेषां स्वात्मनः अनन्यत्वं जानन् तेभ्यः कमपि अर्थम् उपदिशति।
यदि कहा जाय कि प्रतिबिम्ब की भाँति प्रतीत होने वाले अर्जुनादि के प्रति करते हैं, तो यह नहीं बन सकता; क्योंकि कोई भी मनुष्य, जो उन्मत्त नहीं हो गया है, मणि, तलवार या दर्पण आदि में दीखने वाले प्रतिबिम्बों को अपना और उनका अभेद जानता हुआ किसी प्रकार का भी उपदेश नहीं करता।
बाधितानुवृत्तिः अपि तैः न शक्यते वक्तुम्; बाधकेन अद्वितीयात्म ज्ञानेन आत्मव्यतिरिक्तभेदज्ञान कारणस्य अज्ञानादेः विनष्टत्वात्। द्विचन्द्रज्ञानादौ तु चन्द्रैकत्वज्ञानेन पारमार्थिकतिमिरादिदोषस्य द्विचन्द्रज्ञानहेतोः अविनष्टत्वाद् बाधितानुवृत्तिः युक्ता। अनुवर्तमानम् अपि प्रबलप्रमाणबाधितत्त्वेन अकिञ्चित्करम्। इह तु भेदज्ञानस्य सविषयस्य सकारणस्य अपारमार्थिकत्वेन वस्तुयाथात्म्यज्ञानविनष्टत्वात् न कथञ्चिद् अपि बाधितानुवृत्तिः सम्भवति। अतः सर्वेश्वरस्य इदानीन्तनगुरुपरम्परायाः च तत्त्वज्ञानम् अस्ति चेद् भेददर्शनतत्कार्योपदेशाद्यसम्भवः। भेददर्शनमस्ति इति चेद्, अज्ञानस्य तद्धेतोः स्थितत्त्वेन अज्ञत्वाद् एव सुतराम् उपदेशो न सम्भवति।
वे (अद्वैतवादी) इस प्रसंग में बाधितानुवृत्ति भी सिद्ध नहीं कर सकते, क्योंकि (भेदज्ञान के) बाधक अद्वितीय आत्मज्ञान के द्वारा आत्मातिरिक्त अन्य भेदज्ञान के कारणरूप अज्ञानादि का विनाश हो चुका है। दृष्टिदोष से दो चन्द्रमा दीखने आदि में तो चन्द्रमा की एकता का ज्ञान हो जाने पर भी दो चन्द्रमा दीखने के वास्तविक कारण तिमिरादि (चक्षुदोष)-का नाश न होने से बाधितानुवृत्तिका होना उचित है। तथा यह भी ठीक है कि दो चन्द्रमा का दिखायी देना आदि वैसा ही रहने पर भी प्रबल प्रमाण से बाधित हो जाने के कारण वह कुछ कर नहीं सकता। परंतु यहाँ (अद्वैत-ज्ञान के विषय में) तो विषय और कारण सहित भेदज्ञान मिथ्या है, अतः वस्तु के यथार्थ ज्ञान से उसका समूल विनाश हो जाता है, ऐसी स्थिति में बाधितानुवृत्ति किसी प्रकार भी सम्भव नहीं है। इसलिये (अद्वैत सिद्धान्त के अनुसार) यदि सर्वेश्वर को और आजकल की गुरुपरम्परा को तत्त्व ज्ञान है तब तो भेददर्शन और उसका कार्य उपदेशादि असम्भव है। यदि कहा जाय कि (उनमें) भेददर्शन रहता है तो फिर अज्ञान और उसका कारण वर्तमान रहने से वे अज्ञानी सिद्ध होते हैं, इसलिये भी उनके द्वारा (यह) उपदेश कदापि सम्भव नहीं।
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