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श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
दूसरा अध्याय
किं च गुरोः अद्वितीयात्मविज्ञानाद् एव ब्रह्माज्ञानस्य सकार्यस्य विनष्टत्वात् शिष्यं प्रति उपदेशो निष्प्रयोजनः। गुरुः तज्ज्ञानं च कल्पितम् इति चेत्, शिष्यतज्ज्ञानयोः अपि कल्पितत्त्वात् तदपि अनिवर्त्तकम्। कल्पितत्त्वेऽपि पूर्वविरोधित्वेन निवर्त्तकम् इति चेत्, तदाचार्यज्ञानेऽपि समानम् इति तद् एव निवर्तकं भवति, इति उपदेशानर्थक्यम् एव; इति कृतम् असमीचीनवादैः निरस्तै: ।।12।।
इसके सिवा, गुरु को अद्वितीय आत्मज्ञान हो जाने से ही ब्रह्म के अज्ञान का कार्य सहित अत्यन्त अभाव हो जाने के कारण शिष्य को उपेदश देना व्यर्थ है। यदि कहा जाय कि गुरु और उसका ज्ञान भी कल्पित ही है तो फिर शिष्य और उसका ज्ञान भी कल्पित है; अतः वह भी अज्ञान का निवर्तक नहीं होगा। यदि कहो कि कल्पित होने पर भी वह अज्ञान का विरोधी है, इसलिये उसका निवर्तक होता है, तो आचार्य के ज्ञान में भी वैसी ही शक्ति विद्यमान है; अतः वही समस्त अज्ञान का निवर्तक हो जाता है, फिर उपदेश तो व्यर्थ ही हुआ। अतएव जिनका ऊपर खण्डन किया जा चुका है उन असमीचीनवादों (असंगत सिद्धान्तों)-से हमारा कोई प्रयोजन नहीं है।।12।।
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