श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
नवाँ अध्याय
अश्रद्दधाना: पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप ।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि ॥3॥
परंतप अर्जुन! इस धर्म में श्रद्धा से रहित पुरुष मुझको न पाकर मृत्यु रूप संसार चक्र में घूमते रहते हैं।। 3।।
अस्य उपासनाख्यस्य धर्मस्य निरतिशयप्रियमद्विषयतया स्वयं निरतिशप्रियरूपस्य परम निःश्रेयसस्वरूपमत्प्राप्तिसाधनस्य अव्ययस्य उपादानयोग्यदशां प्राप्य अश्रद्दधानाः विश्वासपूर्वकत्वरारहिताः पुरुषाः माम् अप्राप्य मृत्यु रूपे संसारवर्त्मनि नितरां वर्तन्ते। अहो! महद् इदम् आश्चर्यम् इत्यर्थः।। 3।।
यह उपासना नामक धर्म, जो कि मुझ निरतिशय प्रेमी से सम्बन्ध रखने वाला होने से स्वयं भी निरतिशय प्रिय है और परम कल्याणरूप मेरी प्राप्ति का अविनाशी उपाय है; इसे प्राप्त करने योग्य दशा को पाकर भी जो मनुष्य इसमें बिना श्रद्धावाले हैं- विश्वास के साथ शीघ्रता से इसका अनुष्ठान नहीं करने वाले हैं, वे मुझको न पाकर निरन्तर मृत्युरूप संसारचक्र में घूमते रहते हैं। अभिप्राय यह कि अहो! यह महान् आश्चर्य है।। 3।।
श्रृणु तावत् प्राप्यभूतस्य मम अचिन्त्यमहिमानम्-
अब तू प्राप्त करने योग्य मुझ परमेश्वर की अचिन्त्य महिमा सुन-
मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना ।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थित: ॥4॥
मुझ अव्यक्तमूर्ति से यह समूचा जगत् व्याप्त है। सारे भूत मुझमें स्थित हैं और मैं उनमें स्थित नहीं हूँ।। 4।।
इदं चेतनाचेतनात्मकं कृत्स्नं जगद् अव्यक्तमूर्तिना अप्रकाशितस्वरूपेण मया अन्तर्यामिणा ततम्। अस्य जगतो धारणार्थ नियमनार्थम् च शेषित्वेन व्याप्तम् इत्यर्थः। यथा अन्तर्यामिब्राह्मणे ‘यः पृथिव्यां तिष्ठान्’’’’’’यं पृथिवी न वेद’ [1] ‘य आत्मनि तिष्ठन्’’’’’’यमात्मा न वेद’ [2] इति चेतना चेतनवस्तुजातैः अदृष्टेन अन्तर्यामिणा तत्र तत्र व्याप्तिः उक्ता।
यह जड-चेतनरूप समस्त जगत् मुझ अव्यक्तमूर्ति- अप्रकटस्वरूप अन्तर्यामी से व्याप्त है। अभिप्राय यह कि मैं इस जगत् का धारण करने और नियम में रखने के लिये इसका शेषी (स्वामी) हूँ, इसलिये यह मुझसे व्याप्त है। जैसे कि ‘अन्तर्यामी ब्राह्मण’ में ‘जो पृथ्वी में स्थित है, पर जिसको पृथ्वी नहीं जानती’, ‘जो आत्मा में स्थित है, पर जिसको आत्मा नहीं जानता’ इस प्रकार जड और चेतन वस्तुमात्र से जो जानने में नहीं आ सकता ऐसे अन्तर्यामी से जगह-जगह सबका व्याप्त होना कहा है।
ततो मत्स्थानि सर्वभूतानि सर्वाणि भूतानि मयि अन्तर्यामिणि स्थितानि, तत्र एव ब्राह्मणे ‘यस्य पृथिवी शरीरं यः पृथिवीमन्तरो यमयति’ [3] ‘यस्यात्मा शरीरं य आत्मानमन्तरो यमयति’ [4] इति शरीरत्वेन नियाम्यत्वप्रतिपादनात्। तदायत्ते स्थितिनियमने प्रतिपादिते शेषित्वं च, न च अहं तेषु अवस्थितः अहं तु न तदायत्त स्थितिः, मत्स्थितौ तैः न कश्चित् उपकार इत्यर्थः ।। 4।।
इसलिये समस्त भूत मुझ अन्तर्यामी में स्थित हैं; क्योंकि उसी ‘अन्तर्यामी ब्राह्मण’ में पृथ्वी जिसका शरीर है, जो पृथ्वी का उसमें व्याप्त रहकर नियमन करता है।’ ‘आत्मा जिसका शरीर है, जो आत्मा का उसमें व्याप्त रहकर नियमन करता है।’ इस प्रकार समस्त जड-चेतन परमपुरुष के शरीर रूप से नियाम्य बतलाये गये हैं; अतः उस परमपुरुष के अधीन उनकी स्थिति और नियमन सिद्ध हो जाने से मैं ही उनका शेषी (स्वामी) भी सिद्ध होता हूँ। परन्तु मैं उनमें स्थित नहीं हूँ- मेरी स्थिति उनके आश्रित नहीं है। अभिप्राय यह कि मेरी स्थिति में उनके द्वारा कोई उपकार नहीं है।।4।।
|