श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य पृ. 162

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श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
छठा अध्याय

पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते ।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति ॥40॥

श्रीभगवान बोले- अर्जुन! उस पुरुष का न तो इस लोक में और न परलोक में ही विनाश होता है; क्योंकि प्यारे! कल्याण (योगसाधन) करने वाला कभी दुर्गति को नहीं प्राप्त होता ।। 40।।

श्रद्धया योगे प्रक्रान्तस्य तस्मात् प्रच्युतस्य इह च अमुत्र च विनाशः न विद्यते? प्राकृतस्वर्गादिभोगानुभवे ब्रह्मानुभवे च अभिलषितानवाप्तिरूपः प्रत्यवायाख्यः अनिष्टावाप्तिरूपश्च विनाशो न विद्यते इत्यर्थः। न हि निरतिशयकल्याण रूपयोगकृत् कश्चित् कालत्रये अपि दुर्गतिं गच्छति।। 40।।

श्रद्धापूर्वक योग में आगे बढ़कर जो (किसी कारणवश) उससे गिर जाता है ऐसे पुरुष का यहाँ और वहाँ कहीं भी नाश नहीं होता- भाव यह कि प्राकृत स्वर्गादि भोगों के अनुभव में जो इष्ट की अप्राप्ति रूप प्रत्यवाय नामक विनाश है और अनिष्ट की प्राप्तिरूप विनाश है, ये दोनों ही उसके नहीं होते; क्योंकि निरितिशय कल्याणरूप योग का साधन करने वाला कोई भी पुरुष तीनों काल में कभी भी दुर्गति को नहीं प्राप्त होता ।। 40।।

कथम् अयं भविष्यति? इत्यत्राह-

यह कैसे प्राप्त होगा? सो कहते हैं-

प्राप्य पुण्यकृतां लोका-नुषित्वा शाश्वती: समा: ।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ॥41॥

वह योगभ्रष्ट पुरुष पुण्यकर्मा पुरुषों को प्राप्त होने योग्य लोगों को प्राप्त होकर, वहाँ बहुत वर्षों तक रहकर फिर शुद्ध और श्रीमानों के घर में जन्म लेता है।। 41।।

यज्जातीयभोगाभिकाङ्क्षया योगात् प्रच्युतः अयम् अतिपुण्यकृतां प्राप्यान् लोकान् प्राप्य तज्जातीयान् अति कल्याणभोगान् ज्ञानोपाययोग माहात्म्याद् एवं भुञ्जानो यावत् तद्भोग तृष्णावसानं शाश्वतीः समाः तत्र उषित्वा तस्मिन् भोगे वितृष्णः शुचीनां श्रीमतां योगोपक्रमयोग्यानां कुले योगोपक्रमे भ्रष्टो योगमाहात्म्याद् जायते।। 41।।

यह योगभ्रष्ट पुरुष अत्यन्त पुण्य कर्माओं को प्राप्त होेने योग्य लोकों को पाकर वहाँ, पहले जिस प्रकार के भोगों की आकाङ्क्षा से उसका मन योग से च्युत हुआ था, ज्ञान के उसी उपायरूप योग के माहात्म्य से उसी प्रकार के अति कल्याणमय भोगों को भोगता है। फिर बहुत काल तक-जब तक उन भोगों की तृष्णा समाप्त नहीं हो जाती, तब तक वहाँ रहकर, उन भोगों की तृष्णा के मिट जाने पर, वह योग साधन में भ्रष्ट हुआ पुरुष के योग के माहात्म्य से ही योगसाधन के उपर्युक्त विशुद्ध और श्रीमानों के कुल में जन्म ग्रहण करता है।। 41।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
अध्याय पृष्ठ संख्या
अध्याय 1 1
अध्याय 2 17
अध्याय 3 68
अध्याय 4 101
अध्याय 5 127
अध्याय 6 143
अध्याय 7 170
अध्याय 8 189
अध्याय 9 208
अध्याय 10 234
अध्याय 11 259
अध्याय 12 286
अध्याय 13 299
अध्याय 14 348
अध्याय 15 374
अध्याय 16 396
अध्याय 17 421
अध्याय 18 448

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