श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
चौथा अध्याय
यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सर: ।
सम: सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ॥22॥
यदृच्छा-लाभ से सन्तुष्ट, द्वन्द्वतीत, मत्सरतारहित और सिद्धि- असिद्धि में सम (भाव वाला) पुरुष कर्म करके भी बाँधता नहीं ।। 22।।
यदृच्छोपनतशरीरधारणहेतुवस्तु सन्तुष्टः द्वन्द्वतीतः यावत्साधन समाप्त्यवर्जनीयशीतोष्णादिसहः विमत्सरः अनिष्टोपनिपातहेतुभूतस्वकर्मनिरूपणेन परेषु विगत मत्सरः समः सिद्धौ असिद्धौ च युद्धादि कर्मसु जयादिसिद्धयसिद्धयोः समचित्तः कर्म एव कृत्वा अपि ज्ञाननिष्ठां विना अपि न निबध्यते, न संसारं प्रतिपद्यते।। 22।।
जो बिना किसी चेष्टा के अपने-आप प्राप्त हुई केवल शरीरधारणोपयोगी वस्तु में ही सन्तुष्ट है द्वन्द्वों से अतीत है-साधन की समाप्तिपर्यन्त अनिवार्य सरदी-गर्मी आदि को सहता है और विमत्सर है- अनिष्ट प्राप्ति में अपने ही कर्मों को हेतु मानकर दूसरों के प्रति मत्सरता (डाह या क्रोध) नहीं करता तथा सिद्धि-असिद्धि में जो सम है- युद्धादि कर्मों में जय-पराजयादिरूप सिद्धि-असिद्धि में समचित रहता है, ऐसा पुरुष केवल कर्म करके भी- ज्ञान-निष्ठा के बिना भी बँधता नहीं- संसार को प्राप्त नहीं होता ।। 22।।
गतसग्ङस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतस: ।
यज्ञायाचरत: कर्म समग्रं प्रविलीयते ॥23॥
आसक्तिरहित, मुक्त (समस्त परिग्रहों से छूटे हुए) आत्मज्ञान में स्थित चित्त वाले और यज्ञ के लिये कर्माचरण करने वाले पुरुष के कर्म पूर्णतया विलीन हो जाते हैं।। 23।।
आत्मविषयज्ञानावस्थितमनस्त्वेन विगततदितरसंगस्य तत एव निखिल परिग्रहविनिर्मुक्तस्य उक्तलक्षणयज्ञादि कर्मनिर्वृत्तये वर्तमानस्य पुरुषस्य बन्ध हेतुभूतं प्राचीनं कर्म समग्रं प्रविलीयते निःशेषं क्षीयते।। 23।।
मन के आत्मविषयक ज्ञान में स्थित हो जाने के कारण आत्मा से अतिरिक्त अन्य पदार्थ में जिसकी आसक्ति नहीं रह गयी है और इसी कारण से जो समस्त परिग्रहों से सर्वथा छूटा हुआ है तथा पूर्वोक्त लक्षणों वाले यज्ञादि कर्मों के सम्पादन में लगा है, ऐसे पुरुष के बन्धन के हेतुभूत प्राचीन कर्म समग्र लीन हो जाते हैं-(सब-के-सब) निःशेषरूप से नष्ट हो जाते हैं।।23।।
प्रकृतिवियुक्तात्मस्वरूपानुसन्धान युक्ततया कर्मणो ज्ञानाकारत्वम् उक्तम्। इदानीं सर्वस्य सपरिकरस्य कर्मणः परब्रह्मभूतपरमपुरुषात्मकत्वानुसन्धानयुक्ततया ज्ञानाकारत्वम् आह-
प्रकृति के संसर्ग से सर्वथा रहित आत्मस्वरूप को समझते हुए कर्म करने से वे कर्म ज्ञानस्वरूप हो जाते हैं, यह कहा गया है। अब, अंगोंसहित समस्त कर्मों को परब्रह्मरूप परम पुरुष का स्वरूप समझते हुए करने से भी वे ज्ञानस्वरूप हो जाते हैं, यह कहते हैं-
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