श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य पृ. 116

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श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
चौथा अध्याय

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् ।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥24॥

अर्पण (स्त्रुवादि) ब्रह्म है, हवि ब्रह्म है और ब्रह्मरूप अग्नि में ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा हवन किया गया है। इस प्रकार (निश्चय करने वाले) ‘ब्रह्मकर्मसमाधि’ पुरुष के द्वारा प्राप्त होने योग्य (वस्तु भी) ब्रह्म ही है।। 24।।

हविः विशेष्यते; अर्प्‍यते अनेन इति अर्पणं स्त्रुगादि, तद् ब्रह्मकार्यत्वाद् ब्रह्म, ब्रह्म यस्य हविषः अर्पणं तद् ब्रह्मार्पणम्। ब्रह्म हविः स्वयं च ब्रह्मभूतं ब्रह्माग्नौ ब्रह्मभूते अग्नौ ब्रह्मणा कर्त्रा हुतम्, इति सर्वकर्म ब्रह्मात्मकत्वाद् ब्रह्ममयम्-इति यः समाधत्ते, स ब्रह्मकर्मसमाधिः। तेन ब्रह्मकर्मसमाधिना ब्रह्म एव गन्तव्यम्। ब्रह्मात्मकतया ब्रह्मभूतम् आत्मस्वरूपं गन्तव्यम्। मुमुक्षुणा क्रियमाणं कर्म परब्रह्मात्मकम् एव इत्यनुसन्धानयुक्ततया ज्ञानाकारं साक्षादात्मावलोकनसाधनम्, न ज्ञाननिष्ठाव्यवधानेन इत्यर्थः।। 24।।

जिसके द्वारा हवि (हवन-सामग्री) (अग्नि में) अर्पित की जाय उस स्त्रुवा आदि को अर्पण कहते हैं, वह ब्रह्म का कार्य होने से ब्रह्म ही है, ऐसा ब्रह्म जिस हवि का अर्पण है, उस हवि का नाम ब्रह्मार्पण है; इस प्रकार ‘ब्रह्मार्पण’ शब्द हवि का विशेषण है। वह हवि स्वयं भी ब्रह्म है- ब्रह्मरूप है और ब्रह्मरूप कर्ता द्वारा ब्रह्मरूप अग्नि में होम की गयी है; इस प्रकार सभी कर्म ब्रह्मात्मक होने के कारण ब्रह्ममय ही हैं- इस प्रकार जो समाधान (निश्चय) करता है, वह ‘ब्रह्मकर्मसमाधि’ हैं। ऐसे ब्रह्मकर्म समाधि पुरुष के द्वारा प्राप्त करने योग्य वस्तु भी ब्रह्म ही है। वह अपने को ब्रह्मात्मक समझता है, इसलिये उसका प्राप्तव्य ब्रह्मरूप पदार्थ भी आत्मस्वरूप ही है। अभिप्राय यह कि मुमुक्षु पुरुष के द्वारा किये हुए कर्म ‘ये सब परब्रह्म के ही स्वरूप हैं’ इस भावना से युक्त होने के कारण ज्ञानस्वरूप हैं- आत्मसाक्षात्कार के प्रत्यक्ष साधन हैं, ज्ञाननिष्ठा के व्यवधान से नहीं ।।24।।

एवं कर्मणो ज्ञानाकारतां प्रतिपाद्य कर्मयोगभेदान् आह-

इस प्रकार कर्मों की ज्ञानस्वरूपता का प्रतिपादन करके अब कर्मयोग के भेदों का वर्णन करते हैं-

दैवमेवापरे यज्ञं योगिन: पर्युपासते ।
ब्रह्मग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति ॥25॥

अन्य कर्मयोगी देव पूजन रूप यज्ञ का ही भलीभाँति अनुष्ठान करते हैं, दूसरे ब्रह्मरूप अग्नि में यज्ञ से ही यज्ञ का हवन करते हैं।। 25।।

दैवं देवार्चनरूपं यज्ञम् अपरे कर्म योगिनः पर्युपासते सेवन्ते; तत्र एव निष्ठां कुर्तन्ति इत्यर्थः। अपरे ब्रह्माग्नौ यज्ञं यज्ञेन एव उपजुह्वति। यज्ञं यज्ञरूपं ब्रह्मात्मकम् आज्यादि द्रव्यं यज्ञेन यज्ञसाधनभूतेन स्नुगादिना जुह्वति। अत्र यज्ञशब्दो हविः स्नुगादियज्ञसाधने वर्तते। ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविः इति न्यायेन यागहोमयोर्निष्ठां कुर्वन्ति।। 25।।

अन्य कर्मयोगी देवसम्बन्धी देवार्चनरूप यज्ञ करते हैं, देवता की भलीभाँति उपासना-सेवा करते हैं, उसी में अपनी निष्ठा करते हैं। अन्य कर्मयोगी ब्रह्मरूप अग्नि में यज्ञ से ही यज्ञ का हवन करते हैं- यज्ञस्वरूप ब्रह्मात्मक घृतादि पदार्थों को यज्ञसाधन रूप स्त्रुवा आदि से होमते हैं। यहाँ (इस श्लोक में) यज्ञ शब्द का प्रयोग हवि और स्नुवा आदि यज्ञ के साधनरूप पदार्थों में हुआ है। अभिप्राय यह कि कितने ही कर्मयोगी ‘ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविः’ इस (पूर्वोक्त) न्याय से यज्ञ-हवनादि में निष्ठा करते हैं।। 25।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

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अध्याय पृष्ठ संख्या
अध्याय 1 1
अध्याय 2 17
अध्याय 3 68
अध्याय 4 101
अध्याय 5 127
अध्याय 6 143
अध्याय 7 170
अध्याय 8 189
अध्याय 9 208
अध्याय 10 234
अध्याय 11 259
अध्याय 12 286
अध्याय 13 299
अध्याय 14 348
अध्याय 15 374
अध्याय 16 396
अध्याय 17 421
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