श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य पृ. 112

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श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
चौथा अध्याय

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मण: ।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गति: ॥17॥

कर्म के विषय में भी जानने योग्य है, अकर्म (ज्ञान)-के विषय में भी जानने योग्य है और विकर्म के विषय में भी जानने योग्य है। कर्म की गति गहन है।। 17।

यस्मात् मोक्षसाधन भूते कर्मण: स्वरूपे बोद्धव्यम् अस्ति; विकर्मणि च नित्यनैमित्तिककम्यकर्मरूपेण तत्साधनद्रव्यार्जनाद्याकारेण च, विविधताम् आपन्नं कर्म विकर्म अकर्मणि ज्ञाने च बोद्धव्यम् अस्ति। गहना दुर्विज्ञाना मुमुक्षो: कर्मणो गति:।

चूँकि मोक्ष के साधनभूत ‘कर्म’ के स्वरूप के विषय में भी जानने योग्य है; नित्य, नैमित्तिक और काम्यरूप से तथा उनके साधन द्रव्योपार्जनादि-रूप से विविध भावों को प्राप्त कर्म विकर्म कहलाते हैं, उस ‘विकर्म’ के विषय में भी जानने योग्य है और ‘अकर्म’-ज्ञान के विषय में भी जानने योग्य है; क्योंकि मुमुक्षु पुरुषों के कर्म की गति बड़ी गहन है- समझने में बड़ी कठिन है।

विकर्मणि च बोद्धव्यम्- नित्यनैमित्तिककाम्यद्रव्यार्जनादौ कर्मणि फलभेदकृतं वैविध्यं परित्यज्य मोक्षैकफलतया एकशास्त्रार्थत्वानु सन्धानम्; तदेतद् ‘व्यवसायात्मिका बुद्धिरेका’ [1] इत्यत्र एव उक्तम् इति न इह प्रपञ्च्यते।।17।।

विकर्म के विषय में जानने योग्य जो नित्य, नैमित्तिक, काम्य और द्रव्योपार्जनादि कर्मों में फलभेदजनित विविधता को छोड़कर एकमात्र मोक्षरूप फल को लक्ष्य करके शास्त्र की एकार्थता को समझना है; वह ‘व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह’ इस श्लोक में कहा जा चुका है, इसलिये यहाँ उसका विस्तार नहीं किया जाता है।।17।।

कर्माकर्मणोः बोद्धव्यम् आह- कर्म और अकर्म के विषय में जो जानने योग्य है, उसे कहते हैं-

कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य: ।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्त: कृत्स्नकर्मकृत् ॥18॥

जो पुरुष कर्म में अकर्म (आत्मज्ञान) और अकर्म (ज्ञान)- में कर्म देखे, वह मनुष्यों में बुद्धिमान् है और वही युक्त है तथा सब कर्मों को करने वाला है।। 18।।

अकर्मशब्देन अत्र कर्मेतरत् प्रस्तुतम् आत्मज्ञानम् उच्यते। कर्मणि क्रियमाणे एव आत्मज्ञानं यः पश्येत् अकर्मणि च आत्मज्ञाने वर्तमान एव यः कर्म पश्येत्।किम् उक्तं भवति?

‘अकर्म’ शब्द से यहाँ कर्म से अतिरिक्त, प्रकरण में आया हुआ, आत्मज्ञान कहा गया है। क्रियमाण (किये जाने वाले) कर्म में ही जो आत्मज्ञान देखता है और वर्तमान आत्मज्ञान में ही जो कर्म देखता है।

क्रियमाणम् एव कर्म आत्मयाथात्मानुसन्धानेन ज्ञानाकारं यः पश्येत्, तत् च ज्ञानं कर्मणि अन्तर्गततया कर्माकारं यः पश्येद् इति उक्तं भवति; क्रियमाणे हि कर्मणि कर्तृभूतात्मयाथात्म्यानुसन्धानेन तद् उभयं सम्पन्नं भवति।

प्रश्न- यहाँ इस कथन का क्या अभिप्राय है? उत्तर- यही कि क्रियमाण कर्म को ही, उसमें आत्मा के यथार्थस्वरूप का अनुसन्धान रहने के कारण जो ज्ञान-स्वरूप समझता है और कर्मों के अन्तर्गत आ जाने के कारण उस ज्ञान को जो कर्मस्वरूप समझता है (वह ठीक समझता है), क्योंकि क्रियमाण कर्म में कर्तारूप आत्मा के यथार्थ स्वरूप का अनुभव करते रहने से दोनों बातें सिद्ध हो जाती हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 2/41

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