भागवत धर्म मीमांसा2. भक्त लक्षण
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सोचने की बात है कि सब भूतों में अपने को देखना सरल है या भगवान को देखना? भगवान को देखना सरल लगता है, लेकिन यदि किसी की भगवान पर श्रद्धा न हो तो उसके लिए सब भूतों में अपने को देखना ही एक तरीका होगा। वैसे तो यह बात कठिन अवश्य है। माँ अपने बच्चे में अपने को देखती है, लेकिन दूसरे के बच्चों के लिए उसकी वह भावना नहीं रहती। इसलिए भगवान की ज्योति सबमें है, यह मानना आसान लगता है। फिर भी उसके लिए ईश्वर पर श्रद्धा चाहिए। वैसी श्रद्धा न हो तो सबमें अपनी भावना करना अधिक सरल होगा। यह नास्तिकों के लिए सहूलियत है। फिर दूसरी बात बतायी : भूतानि भगवति आत्मनि एषः पश्येत्- भक्त सब भूतों को भगवान में, अपने में भी देखता है। यानि सब ओतप्रोत है। मतलब यह कि भगवान में प्राणिमात्र हैं और प्राणिमात्र में भगवान है। हममें सब भूत हैं और सब भूतों में हम हैं- ये चार बातें समझा दीं। वैसे देखा जाय तो दुनिया में अनेक भेद हैं, लेकिन जड़, चेतन और परमात्मा, ये प्रमुख भेद हैं। उनमें भी अवान्तर भेद हैं। जड़ यानि सारी अचेतन सृष्टि। सृष्टि में पत्थर, पानी, पेड़, पहाड़, ये सारे भेद पड़े हैं। घड़ी, कुर्सी, चश्मा, ये भेद भी हैं। एक का काम दूसरी वस्तु नहीं कर पाती। इसी तरह चेतन-चेतन में भी भेद हैं। मनुष्य अलग और गदहा अलग। यही क्यों, मनुष्य-मनुष्य में भी भेद हैं। जैसे परमेश्वर और जड़ में भेद होता है, वैसे ही परमेश्वर और चेतन में भी है। तो, कुल मिलाकर पाँच प्रकार के भेद हुए :
किंतु भागवत ये सारे भेद खतम करने की बात कह रही है। इन पाँचों भेदों में जो अभेद देखेगा, वही उत्तीर्ण होगा। वह ‘भागवतोत्तम:’ होगा यानि उत्तम भक्त होगा। प्रथम श्रेणी का, पहले दर्जे का भक्त होगा। इस तरह की आशा रखना तो ठीक ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भागवत-11.2.45
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