श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-15
पुरुषोत्तम योग
इस विपरीत ज्ञान से लोगों में जागर्ति और स्वप्न नाम की जो दो अवस्थाएँ उत्पन्न होती हैं, वह मूल गाढ़ अज्ञान में विलीन हो जाती हैं और जब उस मूल अज्ञान का ज्ञान में विलय हो जाता है तथा ज्ञान सम्मुख आकर खड़ा होता है, तब ज्ञान भी ठीक उसी प्रकार अज्ञान का नाश कर डालता है, जिस प्रकार ईंधन को अग्नि भस्म कर डालती है; और तब वह ज्ञान आत्मवस्तु की उपलब्धि कराके स्वयं भी उसी प्रकार अपने-आपको समाप्त कर डालता है, जैसे काष्ठ को भस्म कर अग्नि अन्ततः स्वयं भी विनष्ट हो जाती है। उस अवस्था में ज्ञान के सिवा और जो कुछ अवशिष्ट रह जाता है, उसी को हे अर्जुन! उत्तम पुरुष समझना चाहिये। पूर्वोक्त क्षर और अक्षर- इन दोनों पुरुषों से भिन्न एक तीसरा ही पुरुष है। हे अर्जुन! सुषुप्ति और स्वप्न- इन दोनों से पृथक जाग्रत्-अवस्था है - जागर्ति इन दोनों से बिल्कुल पृथक् एक तीसरी ही अवस्था को कहते हैं। रश्मि और मृगजल - इन दोनों से भिन्न ही सूर्य-मण्डल का विस्तार होता है। ठीक यही बात उत्तम पुरुष के बारे में भी जाननी चाहिये - वह भी क्षर और अक्षर दोनों से भिन्न होता है। सिर्फ यही नहीं, अपितु जैसे काष्ठ में विद्यमान अग्नि काष्ठ से भिन्न होती है, वैसे ही यह उत्तम पुरुष भी क्षर और अक्षर- इन दोनों से भिन्न है। जैसे कल्पान्त काल में प्रलय का जल समस्त सीमाओं का उल्लंघन करके सारे नदों और नदियों को एकाकार कर देता है, वैसे ही जिसके समक्ष स्वप्न, सुषुप्ति और जागर्ति - इन तीनों अवस्थाओं का कहीं नामोनिशान ही नहीं रह जाता, जो समस्त अवस्थाओं का ठीक वैसे ही लय कर देता है, जैसे प्रलय काल अपने विनाशक तेज से दिन और रात दोनों को निगल जाता है और इसीलिये जिसमें कहीं द्वैत-अद्वैत का भान भी नहीं होता, उसी को उत्तम पुरुष जानना चाहिये। परमात्मा को भी सिर्फ उसी अवस्था में उत्तम पुरुष कहा जा सकता है, जबकि बिना उसमें मिले जीव-दशा का आश्रय लिया जाय। हे अर्जुन! जल में डूबने की चर्चा तभी की जा सकती है, जब व्यक्ति स्वयं जल में न डूबे और तट पर स्थित होकर किसी को डूबते हुए देखे। ठीक इसी प्रकार वेद भी विवेक के तट पर स्थित होकर इस पार और उस पार की अथवा उत्तम और कनिष्ठ की बात कह सकते हैं। |
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