श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-15
पुरुषोत्तम योग
हे धनंजय! जैसे जाग्रत-अवस्था ही निद्रा का भी तथा जागरण का भी कारण है, ठीक वैसे ही मैं ही इन जीवों के ज्ञान और अज्ञान इन दोनों का भी कारण हूँ। जैसे रस्सी ही सर्पाभास का भी तथा रस्सी के ज्ञान का भी मूल कारण होती है, ठीक वैसे ही मैं ही ज्ञान का भी तथा अज्ञान का भी और अज्ञान के कारण दृष्टिगत होने वाले समस्त सांसारिक प्रसार का भी मूल कारण हूँ। इसीलिये हे किरीटी! वास्तव में मेरा जो स्वरूप है, उस स्वरूप की परिकल्पना न होने पर जिस समय वेद मुझे जानने के लिये आगे कदम बढ़ाये, उस समय उनमें भिन्न-भिन्न शाखाएँ निकलने लगीं। तो भी यही जानना चाहिये कि वे शाखाएँ भी मेरा ही ज्ञान कराती हैं कारण कि चाहे पूरब की ओर बहने वाली नदी हो और चाहे पश्चिम की ओर बहने वाली नदी हो, दोनों ही अन्ततः समुद्र में जाकर मिलती हैं। जैसे परिमलसहित पवन के झोंके आकाश में लीन होते हैं, ठीक वैसे ही शब्दों के सहित श्रुतियाँ भी ‘अहं ब्रह्मास्मि’ वाले महासिद्धान्त में लीन होती हैं और फिर इस प्रकार सारी श्रुतियाँ जो लज्जित होकर स्तब्ध हो जाती हैं, सो यह कार्य भी मेरे ही प्रकाश से होता है। तदनन्तर, जो निर्मल ज्ञान होने पर श्रुतियों के सहित समस्त जगत् लीन हो जाता है, उस ज्ञान को जानने वाला भी एकमात्र मैं ही हूँ। जैसे निद्रा समाप्त होने पर स्वप्नावस्था की कोई बात व्यक्ति में नहीं रह जाती और वह समझ लेता है कि केवल मैं ही हूँ, ठीक वैसे ही बिना किसी द्वैताभास हुए मैं स्वयं अपनी अद्वैतता जानता हूँ। मैं ही आत्मबोध का कारण भी हूँ। इतना होने पर जैसे कपूर में अग्नि प्रज्वलित करने पर, हे वीर शिरोमणि! न तो काजल ही अवशिष्ट रह जाता है और न अग्नि ही अवशिष्ट रहती है, ठीक वैसे ही जो ज्ञान समस्त अविद्या को जलाकर राख कर डालता है, स्वयं वह ज्ञान ही जिस समय विलुप्त हो जाता है, उस समय होना तथा न होना अथवा जन्म-मृत्यु कुछ भी शेष नहीं रह जाता। जो चोर सारे विश्व को ही चुरा कर अपने साथ ले गया हो, भला उसका पता कैसे लगाया जा सकता है? |
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |